रथ यात्रा मात्र दो दिन रह गए हैं । पढ़िए समस्त जानकारी इस लेख से। 2025 की जगन्नाथ रथ यात्रा की पूरी जानकारी पाएं! जानें तिथि, रथों का रंग, माप, और भगवान जगन्नाथ, बलराम व सुभद्रा की रहस्यमय कहानियां और पौराणिक कथाओं का विस्तृत वर्णन है।
"पुरी में भगवान जगन्नाथ की भव्य रथ यात्रा के दौरान विशाल श्रद्धालु समूह द्वारा खींचे जा रहे रथों का दिव्य दृश्य — आस्था, परंपरा और भक्ति से सराबोर अद्भुत क्षण।"
परिचय: एक महापर्व का आवाहन
भगवान विष्णु के चार धामों में से एक, जगन्नाथ पुरी धाम, भारत की समृद्ध सांस्कृतिक और धार्मिक विरासत का एक चमकता सितारा है। प्रतिवर्ष आषाढ़ मास के शुक्ल पक्ष की द्वितीया तिथि को यहां से निकलने वाली रथ यात्रा, न केवल ओडिशा बल्कि पूरे विश्व में प्रसिद्ध है। यह सिर्फ एक धार्मिक जुलूस नहीं, बल्कि एक ऐसा अनुभव है जो मनुष्य को सीधे ईश्वरीय ऊर्जा से जोड़ता है।
वर्ष 2025 में, शुक्रवार, 27 जून, दिन शुक्रवार को यह भव्य रथ यात्रा निकाली जाएगी। यह दिन करोड़ों भक्तों के लिए एक विशेष महत्व रखता है, क्योंकि इस दिन भगवान जगन्नाथ, उनके बड़े भाई बलराम और बहन सुभद्रा, अपने भव्य रथों पर सवार होकर अपने भक्तों को दर्शन देने के लिए मंदिर से बाहर निकलते हैं। यह एक ऐसा क्षण होता है जब भगवान स्वयं अपने भक्तों के बीच आते हैं, उनकी प्रार्थनाएं सुनते हैं और उन्हें आशीर्वाद देते हैं।
रथ यात्रा से पहले का समय भी अपनी आध्यात्मिक महत्व रखता है। भगवान जगन्नाथ, भाई बलराम और बहन सुभद्रा 11 जून, 2025, बुधवार, पूर्णिमा तिथि से बीमार पड़ जए है । इसे "अनसर पीरियड" कहा जाता है। 15 दिनों तक वे एकांतवास करेंगे और भक्तों को उनके दर्शन और मंदिर में प्रवेश निषेध रहेगा।
इस दौरान मंदिर का कपाट बंद रहेगा और केवल पुजारी, जो कविराज के रूप में कार्य करते हैं, भगवान और उनके भाई-बहनों के इलाज के लिए मंदिर में प्रवेश कर सकेंगे। भक्तों को इन 15 दिनों तक प्रसाद के रूप में केवल जल ही प्राप्त होगा।
यह अवधि हमें धैर्य, विश्वास और ईश्वर के प्रति अटूट श्रद्धा का पाठ पढ़ाती है। यह सिखाती है कि कैसे भगवान भी मानवीय लीलाएं करते हैं, और फिर कैसे वे पुनः स्वस्थ होकर अपने भक्तों को दर्शन देते हैं।
रथ यात्रा से पहले की महत्वपूर्ण तिथियां 2025:
* 11 जून, 2025 (बुधवार): ज्येष्ठ पूर्णिमा - भगवान जगन्नाथ, बलराम और सुभद्रा का स्नान (स्नान पूर्णिमा) और उसके बाद "अनसर" अवधि की शुरुआत (बीमारी)।
* 11 जून - 26 जून, 2025: अनसर अवधि - भगवान एकांतवास में रहेंगे, भक्तों के लिए मंदिर के द्वार बंद रहेंगे।
* 25 जून, 2025 (बुधवार): आषाढ़ कृष्ण पक्ष अमावस्या - भगवान बीमारी से ठीक हो जाएंगे। यह "नेत्रोत्सव" का दिन होता है, जब भगवान की आंखों को फिर से पेंट किया जाता है और वे अपने भक्तों को दर्शन देने के लिए तैयार होते हैं।
* 27 जून, 2025 (शुक्रवार): आषाढ़ शुक्ल पक्ष द्वितीया तिथि - भव्य रथ यात्रा निकाली जाएगी!
इस लेख में हम जगन्नाथ मंदिर की रोमांचक कहानी, रथ यात्रा क्यों मनाई जाती है, इसकी उत्पत्ति, और इससे जुड़ी विभिन्न पौराणिक कथाओं पर विस्तार से चर्चा करेंगे। हम तीनों रथों की विशेषताओं, उनके रंग, ऊंचाई, और उनमें लगने वाली लकड़ियों से लेकर उनके सारथियों और रक्षकों तक, हर विवरण को जानेंगे।
तो, कमर कस लीजिए, क्योंकि हम एक ऐसी यात्रा पर निकलने वाले हैं जो आपको पुरी की पावन भूमि और भगवान जगन्नाथ की अद्भुत महिमा से परिचित कराएगी!
जगन्नाथ मंदिर की रोमांचक कहानी: एक रहस्यमय उद्भव
जगन्नाथ मंदिर, जिसे अक्सर "श्वेत पगोडा" कहा जाता है, न केवल एक पूजा स्थल है, बल्कि एक जीवित किंवदंती है। इसकी उत्पत्ति और निर्माण से जुड़ी कई रोमांचक कहानियां हैं, जिनमें से एक सबसे प्रचलित कहानी राजा इंद्रद्युम्न और भगवान विष्णु के अवतार, नील माधव की है।
नील माधव की खोज और राजा इंद्रद्युम्न की भक्ति:
पौराणिक कथा के अनुसार, सतयुग में, भगवान विष्णु एक नीले रंग की मूर्ति, नील माधव के रूप में, उड़ीसा के जंगलों में एक गुप्त स्थान पर पूजे जाते थे। कहा जाता है कि इस मूर्ति की पूजा सबर जनजाति के प्रमुख विश्ववसु करते थे। ऐसी मान्यताएं थी कि नील माधव के दर्शन मात्र से ही मोक्ष की प्राप्ति होती थी।
राजा इंद्रद्युम्न, मालवा देश के एक परम विष्णु भक्त राजा थे। उन्होंने नील माधव की महिमा के बारे में सुना और उनके दर्शन के लिए व्याकुल हो उठे। उन्होंने अपने ब्राह्मण पुरोहित विद्यापति को नील माधव का पता लगाने के लिए भेजा। विद्यापति ने कई दिनों तक खोजबीन की, लेकिन नील माधव का कोई निशान नहीं मिला। अंततः, उन्हें विश्ववसु की बेटी ललिता से प्यार हो गया और उन्होंने उससे शादी कर ली। ललिता के माध्यम से, विद्यापति को पता चला कि उनके पिता विश्ववसु ही नील माधव की गुप्त रूप से पूजा करते हैं।
भगवान श्री कृष्ण, नीले रंग के शरीर और दिव्य रूप में, जंगल में एक गुफा के अंदर स्थापित हैं, जहां पुजारी उनकी पूजा कर रहे हैं।
विश्ववसु ने पहले तो नील माधव का स्थान बताने से इनकार कर दिया, लेकिन विद्यापति के लगातार अनुरोध और ललिता के आग्रह पर, वे सहमत हो गए। हालांकि, उन्होंने एक शर्त रखी कि विद्यापति को आंखों पर पट्टी बांधकर ही नील माधव के पास ले जाया जाएगा। विद्यापति, अपनी बुद्धिमत्ता का उपयोग करते हुए, रास्ते भर सरसों के दाने बिखेरते गए ताकि बाद में वे उस रास्ते का पता लगा सकें।
जब विद्यापति ने नील माधव के दर्शन किए, तो वे उनकी दिव्य सुंदरता से मंत्रमुग्ध हो गए। उन्होंने तुरंत राजा इंद्रद्युम्न को यह खबर दी। राजा अपनी सेना के साथ नील माधव को पुरी लाने के लिए चल पड़े। लेकिन जब वे उस स्थान पर पहुंचे, तो नील माधव मूर्ति गायब हो चुकी थी। भगवान ने स्वयं अपनी इच्छा से वहां से अंतर्ध्यान हो गए थे।
राजा इंद्रद्युम्न बहुत दुखी हुए। उन्होंने भगवान को प्रसन्न करने के लिए कठोर तपस्या की। उनकी तपस्या से प्रसन्न होकर, भगवान विष्णु ने उन्हें दर्शन दिए और कहा कि वे समुद्र में एक विशाल लकड़ी का लट्ठा भेजेंगे, जिससे उनकी मूर्तियां बनाई जाएंगी। भगवान ने यह भी बताया कि मूर्तियों को बनाने के लिए किसी साधारण कारीगर को नहीं, बल्कि स्वयं एक दिव्य कारीगर को भेजा जाएगा।
भगवान विश्वकर्मा का आगमन और मूर्तियों का निर्माण:
भगवान के वचन के अनुसार, समुद्र में एक विशाल दारु (लकड़ी का लट्ठा) तैरता हुआ आया। राजा इंद्रद्युम्न ने उसे बाहर निकलवाया। तब एक वृद्ध बढ़ई के रूप में स्वयं भगवान विश्वकर्मा वहां प्रकट हुए। उन्होंने शर्त रखी कि वे मूर्तियों का निर्माण एक बंद कमरे में करेंगे और जब तक मूर्तियां पूरी नहीं हो जातीं, तब तक कोई भी उस कमरे का दरवाजा नहीं खोलेगा। यदि किसी ने भी दरवाजा खोला, तो वे काम अधूरा छोड़ देंगे।
"जब राजा के आगमन से अधूरा रह गया भगवान विश्वकर्मा का अद्भुत शिल्प - जगन्नाथ के अपूर्ण विग्रह!
राजा ने शर्त मान ली। कई दिनों तक कमरे से हथौड़े और छेनी की आवाजें आती रहीं। लेकिन पंद्रहवें दिन, आवाजें बंद हो गईं। रानी गुंडिचा, जो बहुत उत्सुक थीं, उन्हें लगा कि बढ़ई भूखा या बीमार हो गया होगा। उन्होंने राजा से आग्रह किया कि दरवाजा खोल दिया जाए। राजा ने, अपनी रानी के आग्रह पर, शर्त तोड़कर दरवाजा खोल दिया।
जब दरवाजा खोला गया, तो सभी हैरान रह गए। मूर्तियों का निर्माण अधूरा था। भगवान जगन्नाथ, बलराम और सुभद्रा की मूर्तियां बिना हाथों और पैरों के थीं। भगवान विश्वकर्मा भी गायब हो चुके थे। राजा इंद्रद्युम्न अत्यंत दुखी हुए और उन्होंने सोचा कि उन्होंने एक बड़ा पाप कर दिया है।
लेकिन तभी, आकाशवाणी हुई कि ये मूर्तियां इसी रूप में पूजी जाएंगी। भगवान ने राजा को समझाया कि यह उनकी दिव्य इच्छा थी कि वे इसी अपूर्ण रूप में भक्तों को दर्शन दें, क्योंकि वे 'भावग्राही' हैं, अर्थात् वे भक्तों के भावों को समझते हैं, न कि उनकी शारीरिक पूर्णता को। यह अधूरी मूर्तियां ही उनकी अद्वितीय और रहस्यमय लीला का प्रतीक बनीं।
राजा इंद्रद्युम्न ने इन अधूरी मूर्तियों को स्थापित करने के लिए एक भव्य मंदिर का निर्माण करवाया, जिसे आज हम जगन्नाथ मंदिर के नाम से जानते हैं। यह मंदिर न केवल एक स्थापत्य चमत्कार है, बल्कि एक ऐसा स्थान है जहां भगवान स्वयं अपने रहस्यमय और प्रेममय रूप में निवास करते हैं। यह कहानी हमें सिखाती है कि ईश्वर की भक्ति में समर्पण और विश्वास ही सर्वोपरि है, और उनकी लीलाएं हमारी मानवीय समझ से परे होती हैं। यह भी एक कारण है कि रथ यात्रा के दौरान भगवान बीमार पड़ते हैं और फिर स्वस्थ होते हैं, यह उनकी मानवीय लीला का ही एक हिस्सा है।
जगन्नाथ रथ यात्रा क्यों मनाई जाती है? तीन रोमांचक पौराणिक कथाएं विस्तार से
जगन्नाथ रथ यात्रा सिर्फ एक धार्मिक जुलूस नहीं है; यह एक गहन सांस्कृतिक और आध्यात्मिक घटना है जो कई शताब्दियों से चली आ रही है। इस महापर्व को मनाने के पीछे कई पौराणिक कथाएं और ऐतिहासिक मान्यताएं हैं। यहां तीन प्रमुख और रोमांचक कथाओं का विस्तार से वर्णन किया गया है, जो इस यात्रा के विभिन्न आयामों को उजागर करती हैं:
01. भगवान कृष्ण का मथुरा प्रस्थान और नगर वासियों को दर्शन
यह कथा रथ यात्रा के सबसे व्यापक रूप से स्वीकृत कारणों में से एक है और भगवान कृष्ण, बलराम और सुभद्रा के जीवन से जुड़ी है।
पढ़ें कथा का विस्तार:
पौराणिक कथा के अनुसार, भगवान कृष्ण और उनके बड़े भाई बलराम को छल से मारने के लिए, उनके क्रूर मामा कंस ने एक योजना बनाई। कंस ने अपने सबसे विश्वासपात्र सारथी अक्रूर को गोकुल भेजा, ताकि वह कृष्ण और बलराम को मथुरा आमंत्रित कर सके, जहां कंस ने उन्हें मारने की योजना बनाई थी। अक्रूर, जो स्वयं भगवान कृष्ण के भक्त थे, भारी मन से गोकुल पहुंचे। उन्होंने कृष्ण और बलराम को बताया कि कंस ने उन्हें एक भव्य धनुष यज्ञ और कुश्ती प्रतियोगिता के लिए आमंत्रित किया है।
भगवान श्री कृष्ण, भाई बलराम और बहन सुभद्रा, अपने मामा अक्रूरजी द्वारा चलाए जा रहे रथ पर, मथुरा की सड़कों से गुजर रहे हैं। उन्हें देखने के लिए उमड़ी भक्तों की भीड़!
कृष्ण और बलराम जानते थे कि कंस का असली इरादा क्या है, लेकिन उन्होंने अपने मामा के निमंत्रण को स्वीकार कर लिया। गोकुल के लोग, विशेषकर गोपियां, कृष्ण और बलराम के जाने की खबर से अत्यंत दुखी थे। उनके जाने की कल्पना मात्र से ही वे व्यथित हो उठे।
अक्रूर के साथ, कृष्ण और बलराम एक रथ पर सवार हुए और मथुरा के लिए प्रस्थान किया। यह दिन, जब भगवान कृष्ण ने अपने प्रिय गोकुल को छोड़कर मथुरा की ओर यात्रा की, उनके भक्तों द्वारा "रथ यात्रा" के रूप में मनाया जाने लगा। यह यात्रा सिर्फ एक शारीरिक प्रस्थान नहीं थी, बल्कि गोकुल के भक्तों के लिए एक भावनात्मक विदाई थी।
जब भगवान कृष्ण और बलराम मथुरा पहुंचे, तो उन्होंने अपनी बहन सुभद्रा को भी अपने साथ लिया। तीनों भाई-बहन - भगवान कृष्ण, बलराम और सुभद्रा - एक विशाल रथ पर सवार होकर मथुरा नगर में प्रवेश किया। इस रथ यात्रा का उद्देश्य नगर वासियों को दर्शन देना था। मथुरा के लोग अपने प्रिय भगवान कृष्ण और उनके भाई-बहनों के आगमन से हर्षित हो उठे। उन्होंने अपने हाथों से रथ खींच कर उनका भव्य स्वागत किया। यह एक ऐसा क्षण था जब भगवान स्वयं अपने भक्तों के बीच आए, उनके प्यार और भक्ति को स्वीकार किया।
रथ यात्रा का क्या है महत्व:
यह कथा रथ यात्रा के मूल में भगवान और उनके भक्तों के बीच के अटूट प्रेम और संबंध को दर्शाती है। रथ को अपने हाथों से खींचना, भक्तों के लिए भगवान के प्रति अपनी श्रद्धा और सेवा व्यक्त करने का एक तरीका बन गया।
यह एक प्रतीकात्मक यात्रा है, जिसमें भक्त भगवान को उनके गंतव्य तक पहुंचाने में मदद करते हैं, ठीक वैसे ही जैसे मथुरा के लोगों ने कृष्ण, बलराम और सुभद्रा का स्वागत किया था। यह कथा हमें याद दिलाती है कि भगवान हमेशा अपने भक्तों के करीब आते हैं, और उनकी भक्ति ही उन्हें अपनी ओर खींचती है।
02. देवी सुभद्रा की अद्भुत लीला और नारद मुनि का आशीर्वाद
यह कथा रथ यात्रा के त्रि-देवता (भगवान जगन्नाथ, बलराम और सुभद्रा) के एक साथ दर्शन और पुरी में उनके निवास से जुड़ी है।
कथा का विस्तार:
एक बार की बात है, द्वारका में, भगवान कृष्ण की आठ पत्नियां (अष्टमहिषी) भगवान कृष्ण और गोपियों से जुड़ी कुछ दिव्य कथाओं पर ध्यान केंद्रित करना चाहती थीं। उन्होंने भगवान की माता रोहिणी से अनुरोध किया कि वे उन्हें ये कथाएं सुनाएं। मां रोहिणी शुरू में कहानी नहीं बताना चाहती थीं क्योंकि ये कथाएं इतनी पवित्र और अंतरंग थीं कि उन्हें किसी और के सामने प्रकट नहीं किया जाना था।
अंत में, लगातार अनुरोध के बाद, मां रोहिणी कथाएं सुनाने के लिए मान गईं, लेकिन उन्होंने एक शर्त रखी। उन्होंने कहा कि सुभद्रा को दरवाजे की रखवाली करनी होगी ताकि कोई भी, विशेषकर पुरुष, इन कहानियों को न सुन सके। सुभद्रा, अपनी निष्ठा के साथ, दरवाजे पर खड़ी हो गईं।
यह तस्वीर बहन सुभद्रा को दर्शाती है, जो अपनी स्नेहिल भुजाओं से द्वार पर भगवान कृष्ण, भाई बलराम और नारद मुनि को रोके हुए हैं। उनके पीछे, कमरे के भीतर, माँ रोहिणी कृष्ण की रानियों को उनकी मनमोहक लीलाओं का ज्ञान प्रदान कर रही हैं। यह दृश्य परिवारिक प्रेम, भक्ति और दिव्य ज्ञान के आदान-प्रदान को खूबसूरती से दर्शाता है।
मां रोहिणी ने भगवान कृष्ण के बचपन की लीलाएं, गोपियों के साथ उनके रास लीलाएं, और वृंदावन की उनकी मधुर स्मृतियां सुनाना शुरू किया। सुभद्रा, दरवाजे की रखवाली करते हुए, इतनी मंत्रमुग्ध हो गईं कि वे पूरी तरह से कथाओं में खो गईं। उनके चेहरे पर भक्ति और आनंद के अद्भुत भाव उभर आए।
इधर, कथा के बीच में ही, भगवान कृष्ण और बलराम को द्वार पर आने का अवसर मिल गया। जब वे आए, तो उन्होंने देखा कि सुभद्रा इतनी लीन हैं कि उन्होंने अनजाने में अपने हाथों को चौड़ा करके फैला दिया है, जैसे कि वे अपने भाईयों को भीतर प्रवेश करने से रोक रही हों, भले ही उनका ध्यान कथा पर था। उनकी आंखें विशाल हो गई थीं और वे पूरी तरह से भावविभोर थीं।
ठीक उसी क्षण, देवर्षि नारद वहां पहुंचे। नारद मुनि ने तीन भाई-बहनों - कृष्ण, बलराम और सुभद्रा - को एक साथ इस अद्भुत भाव में देखा: कृष्ण और बलराम सुभद्रा के पीछे खड़े थे, और सुभद्रा अपने हाथों को फैलाकर खड़ी थीं, सभी दिव्य आनंद में डूबे हुए थे। यह एक असाधारण दृश्य था।
नारद मुनि, इस दिव्य दृश्य से अभिभूत होकर, तीनों भाई-बहनों से प्रार्थना की। उन्होंने अनुरोध किया कि वे अपना आशीर्वाद हमेशा के लिए इसी रूप में प्रदान करें, ताकि भक्त हमेशा उन्हें एक साथ देख सकें और उनकी पवित्रता का अनुभव कर सकें। देवताओं ने नारद की इच्छा पूरी की। यह माना जाता है कि इसी घटना के परिणामस्वरूप, भगवान कृष्ण, बलराम और सुभद्रा उसी अधूरी और बिना हाथों-पैरों की आकृति में पुरी के जगन्नाथ मंदिर में सदा के लिए निवास करने लगे।
कथा का क्या है महत्व:
यह कथा जगन्नाथ, बलराम और सुभद्रा की अनूठी मूर्तियों के पीछे की आध्यात्मिक व्याख्या प्रदान करती है। यह इस बात पर जोर देती है कि भगवान की भक्ति का अनुभव करने के लिए शारीरिक पूर्णता आवश्यक नहीं है। सुभद्रा का दिव्य भाव, जिसमें वे इतनी लीन हो गईं कि उन्होंने अपनी बाहरी चेतना खो दी, हमें सिखाता है कि सच्ची भक्ति हमें दिव्य चेतना में ले जाती है। नारद मुनि का आशीर्वाद यह सुनिश्चित करता है कि यह दिव्य त्रिमूर्ति हमेशा भक्तों के लिए सुलभ रहे, उनकी भक्ति और प्रेम को स्वीकार करते हुए।
03. मौसी बाड़ी की यात्रा और भगवान का भक्त प्रेम
यह कथा रथ यात्रा के दौरान भगवान जगन्नाथ के गुंडिचा मंदिर जाने के कारण और इस यात्रा के आध्यात्मिक महत्व को समझाती है।
कथा का विस्तार:
रथ यात्रा का एक महत्वपूर्ण पड़ाव भगवान जगन्नाथ, बलराम और सुभद्रा का जगन्नाथ मंदिर से निकलकर अपनी "मौसी बाड़ी" में जाकर सप्ताह भर विश्राम करना है। यह मौसी बाड़ी वास्तव में गुंडिचा मंदिर है।
इस यात्रा के पीछे कई मान्यताएं हैं, लेकिन सबसे प्रचलित कथा यह है कि गुंडिचा देवी भगवान जगन्नाथ की मौसी हैं। कहा जाता है कि वे भगवान कृष्ण, बलराम और सुभद्रा से बहुत प्रेम करती हैं और प्रतिवर्ष उन्हें अपने घर बुलाना पसंद करती हैं ताकि वे उन्हें प्यार और दुलार दे सकें। यह एक तरह से भगवान का अपने परिजनों के प्रति स्नेह और मानवीय रिश्तों को निभाने का प्रतीक है।
यह तस्वीर भगवान कृष्ण, भाई बलराम और बहन सुभद्रा को अपनी मौसी के घर पहुंचते हुए दिखाती है, जहां उनकी मौसी तीनों का गर्मजोशी से स्वागत कर रही हैं। यह दृश्य परिवारिक प्रेम और स्नेह को खूबसूरती से दर्शाता है।
एक और कथा यह भी है कि गुंडिचा देवी वही रानी गुंडिचा हैं, जिनके अनुरोध पर राजा इंद्रद्युम्न ने अधूरी मूर्तियों के निर्माण के दौरान कमरे का दरवाजा खोल दिया था। भगवान ने उनकी भक्ति से प्रसन्न होकर उन्हें वरदान दिया था कि वे वर्ष में एक बार दो दिनों के प्रवास के लिए उनके महल में जाएंगे। रानी गुंडिचा का निवास बाद में एक मंदिर बन गया, जिसे गुंडिचा मंदिर के नाम से जाना जाता है। इस कथा के अनुसार, रथ यात्रा के दौरान भगवान का गुंडिचा मंदिर जाना उनकी रानी के प्रति दिए गए वचन को पूरा करना है।
तीसरी मान्यता यह है कि गुंडिचा मंदिर को भगवान जगन्नाथ का "जन्मस्थान" माना जाता है। कुछ परंपराओं के अनुसार, दारु (पवित्र लकड़ी) जिससे भगवान की मूर्तियां बनाई गई थीं, वह पहले गुंडिचा मंदिर के स्थान पर ही प्रकट हुई थी। इसलिए, रथ यात्रा के दौरान भगवान का गुंडिचा मंदिर जाना उनके जन्मस्थान पर वापसी और अपनी जड़ों से जुड़ने का प्रतीक है।
9 दिनों तक मौसी बाड़ी (गुंडिचा मंदिर) में विश्राम करने के बाद, आषाढ़ शुक्ल पक्ष हरिशयन एकादशी, दिन रविवार 06 जुलाई (या बहुदा एकादशी) के दिन भगवान जगन्नाथ, भाई बलराम और बहन सुभद्रा वापस अपने घर, जगन्नाथ मंदिर में आ जाते हैं। इस वापसी यात्रा को "बहुदा जात्रा" कहा जाता है।
क्या है महत्व:
यह कथा भगवान के लौकिक और मानवीय स्वरूप को दर्शाती है। भगवान, जो ब्रह्मांड के स्वामी हैं, एक बच्चे की तरह अपनी मौसी के घर जाते हैं, आराम करते हैं और फिर अपने घर लौटते हैं। यह भक्तों को यह समझने में मदद करता है कि भगवान दूर नहीं हैं, बल्कि वे हमारे बीच ही रहते हैं और मानवीय संबंधों का भी सम्मान करते हैं।
गुंडिचा यात्रा भक्तों के लिए एक महत्वपूर्ण अवसर है। यह माना जाता है कि इस दौरान रथ खींचने से, या रथ के दर्शन मात्र से, मनुष्य के सारे पाप नष्ट हो जाते हैं। यह यात्रा आध्यात्मिक शुद्धि और मोक्ष की ओर एक कदम है।
यह हमें सिखाती है कि भक्ति और प्रेम के माध्यम से, हम भगवान के करीब आ सकते हैं और उनके आशीर्वाद प्राप्त कर सकते हैं। यह रथ यात्रा पूरे एक माह तक चलने वाले भगवान जगन्नाथ रथयात्रा महोत्सव का एक अभिन्न अंग है, जो भक्ति और उत्साह से ओत-प्रोत होता है।
संक्षेप में, ये तीन कथाएं जगन्नाथ रथ यात्रा के बहुआयामी महत्व को उजागर करती हैं:
* भगवान का भक्तों के लिए सुलभ होना: मथुरा प्रस्थान की कथा दर्शाती है कि भगवान भक्तों से जुड़ने के लिए स्वयं यात्रा करते हैं।
* दिव्य स्वरूप का रहस्य: सुभद्रा की लीला की कथा मूर्तियों के अधूरे स्वरूप के पीछे की दिव्य योजना को बताती है।
* पारिवारिक स्नेह और पवित्रता: मौसी बाड़ी की यात्रा भगवान के मानवीय पहलू और उनके पवित्र निवास स्थान से जुड़ने के महत्व को दर्शाती है।
यह सभी कथाएं मिलकर रथ यात्रा को एक अनूठा और गहरा अर्थ प्रदान करती हैं, जो इसे सिर्फ एक धार्मिक घटना से कहीं अधिक बनाती है – यह एक आध्यात्मिक अनुभव है जो जीवन के हर पहलू को छूता है।
जगन्नाथ रथ यात्रा का क्या महत्व है? 'ब्रह्मांड के भगवान' का दर्शन
जगन्नाथ रथ यात्रा का महत्व केवल धार्मिक अनुष्ठान तक ही सीमित नहीं है; यह एक गहरा आध्यात्मिक, सांस्कृतिक और सामाजिक महत्व रखती है। इसका नाम ही इसके सार को बताता है: "जगन्नाथ" दो शब्दों से बना है – "जग" जिसका अर्थ है ब्रह्मांड (या जगत), और "नाथ" जिसका अर्थ है भगवान। इस प्रकार, जगन्नाथ का अर्थ है 'ब्रह्मांड का भगवान'।
भगवान जगन्नाथ को भगवान विष्णु के अवतारों में से एक माना जाता है, विशेष रूप से भगवान कृष्ण के पूर्ण अवतार के रूप में। इसलिए, जगन्नाथ रथ यात्रा को भगवान विष्णु के सार्वभौमिक प्रभुत्व और उनके भक्तों के प्रति प्रेम का उत्सव माना जाता है।
यहां रथ यात्रा के महत्व के कुछ प्रमुख बिंदु दिए गए हैं:
* सर्वव्यापी ईश्वर का प्रतीक: जगन्नाथ का शाब्दिक अर्थ है 'ब्रह्मांड के भगवान'। रथ यात्रा के दौरान, भगवान जगन्नाथ अपने मंदिर से बाहर आकर भक्तों को दर्शन देते हैं, यह इस बात का प्रतीक है कि भगवान केवल मंदिर के भीतर ही सीमित नहीं हैं, बल्कि वे हर जगह और हर प्राणी में निवास करते हैं। यह यात्रा हमें यह याद दिलाती है कि ईश्वर सर्वव्यापी हैं और हर किसी के लिए सुलभ हैं, चाहे उनकी सामाजिक स्थिति या पृष्ठभूमि कुछ भी हो।
* भक्त और भगवान का मिलन: रथ यात्रा भक्तों और भगवान के बीच के आध्यात्मिक बंधन को मजबूत करती है। यह एक दुर्लभ अवसर होता है जब भगवान स्वयं अपने भक्तों के पास आते हैं, उन्हें अपने दर्शन का अवसर प्रदान करते हैं। लाखों भक्त अपने हाथों से रथों को खींचते हैं, यह भगवान के प्रति उनके प्रेम, श्रद्धा और सेवा का प्रत्यक्ष प्रदर्शन है। यह क्रिया भक्तों को यह महसूस कराती है कि वे सीधे भगवान की सेवा कर रहे हैं और उनके दिव्य कार्य में भागीदार हैं।
* पापों का नाश और मोक्ष की प्राप्ति: ऐसी प्रबल मान्यता है कि रथ यात्रा के जुलूस के दौरान भगवान के रथों को खींचना या उनके दर्शन मात्र से मनुष्य के जाने-अनजाने में किए गए सभी पाप नष्ट हो जाते हैं। यह क्रिया मोक्ष की ओर ले जाती है और जीवन-मरण के चक्र से मुक्ति दिलाने में सहायक होती है। यह विश्वास ही लाखों लोगों को हर साल पुरी खींच लाता है, जो आध्यात्मिक शुद्धि और भगवान के आशीर्वाद की कामना करते हैं।
* सामाजिक समरसता और समानता: जगन्नाथ मंदिर और रथ यात्रा अपनी सामाजिक समरसता के लिए भी प्रसिद्ध हैं। यहाँ जाति, पंथ, धर्म या लिंग के आधार पर कोई भेदभाव नहीं किया जाता है। सभी भक्त समान रूप से रथ खींचते हैं और भगवान के दर्शन करते हैं। यह भारतीय समाज में समानता और एकता का एक उत्कृष्ट उदाहरण प्रस्तुत करता है। रथ यात्रा एक ऐसा त्योहार है जो सभी को एक साथ लाता है, एक साझा भक्ति और उल्लास में एकजुट करता है।
* सांस्कृतिक विरासत का संरक्षण: रथ यात्रा भारत की समृद्ध सांस्कृतिक और धार्मिक विरासत का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है। यह सदियों पुरानी परंपराओं, अनुष्ठानों, कला रूपों और लोककथाओं को जीवित रखती है। रथों का निर्माण, विभिन्न अनुष्ठान, संगीत और नृत्य - ये सभी भारत की सांस्कृतिक विविधता और गहराई को दर्शाते हैं। यह त्योहार आने वाली पीढ़ियों के लिए इन परंपराओं को संरक्षित रखने में मदद करता है।
* स्वास्थ्य और समृद्धि का आशीर्वाद: कई भक्त भगवान का आशीर्वाद प्राप्त करने और अपनी इच्छाओं को पूरा करने के लिए दुनिया भर से जगन्नाथ रथ यात्रा को व्यापक रूप से मनाने आते हैं। यह माना जाता है कि भगवान जगन्नाथ की कृपा से भक्तों को स्वास्थ्य, समृद्धि और खुशी प्राप्त होती है। यात्रा के समय का वातावरण अत्यंत शुद्ध, आनंदमय और सकारात्मक ऊर्जा से भरपूर होता है, जो भक्तों को आध्यात्मिक शांति प्रदान करता है।
* विभिन्न नामों से ख्याति: जगन्नाथ रथ यात्रा को विभिन्न अन्य नामों से भी जाना जाता है, जो इसके बहुआयामी महत्व को दर्शाते हैं। इनमें गुंडिचा यात्रा, रथ महोत्सव, दशावतार और नवदीना यात्रा शामिल हैं। ये नाम यात्रा के विभिन्न पहलुओं और चरणों को उजागर करते हैं, जैसे भगवान का गुंडिचा मंदिर जाना (गुंडिचा यात्रा), रथों का उपयोग (रथ महोत्सव), भगवान के दशावतारों का प्रतिनिधित्व, और नौ दिनों की यात्रा (नवदीना यात्रा)।
2025 की रथ यात्रा: ब्रह्मांड के स्वामी का महापर्व!
क्या आप तैयार हैं एक ऐसे आध्यात्मिक और सांस्कृतिक अनुभव के लिए जो आपकी आत्मा को तृप्त कर देगा? रथ यात्रा, सिर्फ एक त्योहार नहीं, बल्कि एक जीवंत परंपरा है जो सदियों से चली आ रही है, और हर साल लाखों भक्तों को अपनी ओर खींचती है। वर्ष 2025 में, जब आषाढ़ मास का शुक्ल पक्ष द्वितीया तिथि को रथ यात्रा निकाली जाएगी, तब पुरी की सड़कें एक बार फिर भक्ति, उल्लास और श्रद्धा से गूंज उठेंगी।
जगन्नाथ मंदिर की रोमांचक कहानी: एक रहस्यमय उद्भव
जगन्नाथ मंदिर, जिसे अक्सर "श्वेत पगोडा" कहा जाता है, न केवल एक पूजा स्थल है, बल्कि एक जीवित किंवदंती है। इसकी उत्पत्ति और निर्माण से जुड़ी कई रोमांचक कहानियां हैं, जिनमें से एक सबसे प्रचलित कहानी राजा इंद्रद्युम्न और भगवान विष्णु के अवतार, नील माधव की है।
अब जानें तीनों रथों की खासियत
जगरनाथ रथ यात्रा में लगने वाले रथों का नाम गरुड़ध्वज, कपिध्वज या नंदीघोष है। इन रथों में 16 पहिए लगे होते हैं और उनकी ऊंचाई साढ़े 13 मीटर तक होती है। रथ को ढांकने के लिए लाल और पीले रंग के 1100 मीटर कपड़ों का उपयोग किया जाता है। इस रथ को बनाने में 832 तरह की लकड़ियों के टुकड़ों का उपयोग में लाया जाता है।
श्री कृष्ण रथ के झंडे नाम त्रिलोक्य मोहिनी है
इन रथों के सारथी का नाम दारुक है। इस रथ का रक्षा भगवान विष्णु के वाहन पक्षीराज गरुड़ और नृसिंह हैं। रथ पर लगे झंडें का नाम त्रिलोक्य मोहिनी है। रथ पर जय और विजय नाम के दो द्वारपाल विरजवान रहते हैं। भगवान श्रीकृष्ण के घोड़ों का रंग सफेद है
* लाल रंग में सजे 'त्रिलोक्य मोहिनी' रथ पर विराजमान भगवान कृष्ण और सारथी दारुक।
इस रथ में जोते जाने वाले घोड़ों का नाम शंख, बलाहक, श्वेत एवं हरिदाश्व है। घोड़े का रंग सफेद होता है। इसके अलावा भगवान जगन्नाथ के रथ की रक्षा के लिए शंख और सुदर्शन स्तंभ भी लगा रहता है। रथ को जिस रस्सी से खींचा जाता है, उसका नाम शंखचूड़ है।
जगन्नाथ के रथ के साथ आठ ऋषियों चलते हैं
इस रथ पर भगवान जगन्नाथ के अलावा अन्य सहायक देवता के रूप में वराह, गोवर्धन, कृष्ण, नृसिंह, राम, नारायण, त्रिविक्रम, हनुमान और रूद्र भी उपस्थित रहते हैं। भगवान जगन्नाथ के रथ के साथ आठ ऋषि भी चलते हैं। जिनके नाम नारद, पाराशर, विशिष्ठ, विश्वामित्र, देवल, व्यास, शुक, और रूद्र हैं।
श्रीकृष्ण के रथ का नाम तालध्वज है
भगवान श्रीकृष्ण के रथ का नाम तालध्वज है। इस रथ की ऊंचाई 13.2 मीटर है। रथ में 14 पहियों लगे रहते हैं। जो लाल, हरे रंग के कपड़े व लकड़ी के 763 टुकड़ों से बनता है। इस रथ के रक्षक वासुदेव और सारथी मताली हैं। इस रथ में झंडा का नाम उनानी हैं।
बलराम जी के रथ को कर काले घोड़े खींचते हैं
बलराम जी के रथ को काले रंग के 4 घोड़े खींचते हैं। इन घोड़ों का नाम त्रिब्रा, घोरा, दीर्घशर्मा व स्वर्णनवा है। इस रथ पर नंद और सुनंद नाम के 2 द्वारपाल सवार रहते हैं। रथ की रक्षा के लिए हल और मुसल भी होते हैं। इनके रथ की शक्तियों के नाम ब्रह्म और शिवा है। इनके रथ को खिंचने के लिए नागों के देवता वासुकी नाग के रुप में रस्सी इस्तेमाल किया जाता है।
* हल और मुसल से सुसज्जित बलराम जी का रथ, जिसे वासुकी नाग की रस्सी खींच रही है, और सारथी नंद व सुनंद।
रथ के साथ सात ऋषियों का दल चलता है
इस रथ में बलराम जी के अलावा उनके अन्य सहायक देवता के रूप में गणेश, कार्तिकेय, प्रलंबरी, हलायुध, मृत्युंजय, नटवर, सर्वमंगल, मुक्तेश्वर और शेषदेव होते हैं। बलराम जी के रथ के साथ पुलह, असस्ति, मुद्गल, अंगिरा, पौलस्त्य, अत्रेय और कश्यप ऋषि भी चलते हैं।
सुभद्रा के रथ का नाम जो देवदलन है
बहन सुभद्रा देवदलन रथ पर सवार होकर नगर भ्रमण को निकती है। रथ अन्य नामों में दर्पदलन और पद्मध्वज भी है। रथ की ऊंचाई 12.9 मीटर है। रथ में 12 पहिए लगे रहते हैं। रथ को लाल और रंग के काले कपड़ों से ढका रहता है। लकड़ी के 593 टुकड़ों का उपयोग किया जाता है।
सुभद्रा का रथ लाल रंग का होता है
इस रथ के रक्षक मां दुर्गा और सारथी अर्जुन होते हैं। इस रथ की द्वारपाल यमुना और मां गंगा हैं। इनके रथ की झंड़े का नाम नदंबिका है। इनके रथ की रक्षा के लिए कल्हर और पद्म शस्त्र होते हैं।
इस रथ की शक्तियों के नाम भुवनेश्वरी और चक्र है। बहन सुभद्रा के रथ में लाल रंग होता है। रथ में चार घोड़े जोते जाते हैं। जिनके नाम अपराजिता, रोचिक, मोचिक और जिता है। इस रथ को खींचने वाली रस्सी का नाम स्वर्णचुड़ा हैं।
* रथ यात्रा में लाल रथ पर सवार बहन सुभद्रा, जिसे श्रद्धापूर्वक खींचते नर-नारी और साथ चलते ऋषि-मुनि।
सुभद्रा जी के इनके अलावा रथ में सहायक देवियों के रुप में चंडी, चामुंडा, उग्रतारा, वनदुर्गा, वराही, श्यामा, काली, मंगला और विमला नाम की देवियां होती हैं। इनके रथ के साथ भृगु, व्रज, श्रृंगी, सुपर्व, ध्रुव और उलूक ऋषि चलते हैं।
डिस्क्लेमर
यह लेख पूरी तरह से धार्मिक ग्रंथों, पौराणिक कथाओं और चलती आ रही परंपराओं पर आधारित है। यह कथा आपको कैसा लगा जरूर पढ़ें और हमें ईमेल से सूचित करें। रथ यात्रा के संबंध में सभी तरह के घटनाओं को समावेशित किया गया है। कथा विद्वान ब्राह्मणों, आचार्य लोक कथाओं और इंटरनेट से भी सहयोग लिया गया है। कथा लिखने का उद्देश्य सनातन धर्म का प्रचार-प्रचार करना और लोगों को त्योहार के प्रति जागृति पैदा करना है। लेख की सत्यता की गारंटी हम नहीं लेते हैं।