ओशो: एक विवादास्पद युगपुरुष की अनसुनी कहानी

"ओशो (रजनीश) का जीवन परिचय, विवाद, शिक्षाएं और विरासत जानें। जानिए कैसे चंद्रमोहन जैन बने दुनिया के सबसे विवादास्पद आध्यात्मिक गुरु और उनके प्रवचनों का सार"

Panoramic photo of Acharya Rajneesh Osho

"भारतीय आध्यात्मिक इतिहास के सबसे प्रभावशाली और विवादास्पद चेहरों में से एक, ओशो (1931-1990) आज भी चर्चा, सम्मान और जिज्ञासा के केंद्र में हैं। ओशो के प्रवचनों में दिए गए 'परमात्मा कहां है?' के बालसेन वाले प्रसंग की गहराई को समझने के लिए, उनके जीवन और दर्शन को जानना आवश्यक है"

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📜 *ओशो (11 दिसंबर 1931 - 19 जनवरी 1990), जिनका मूल नाम चंद्रमोहन जैन था, बीसवीं सदी के सबसे प्रभावशाली और विवादास्पद आध्यात्मिक गुरुओं में से एक थे। उन्हें आचार्य रजनीश और भगवान श्री रजनीश के नाम से भी जाना जाता था। मध्य प्रदेश के कुचवाड़ा गांव में जन्मे ओशो ने दर्शनशास्त्र में शिक्षा प्राप्त की और जबलपुर विश्वविद्यालय में प्राध्यापक के रूप में कार्य किया। 1960 के दशक में उन्होंने पूरे भारत में यात्रा करके सार्वजनिक प्रवचन देना शुरू किया।

*उनकी शिक्षाओं की मूल भावना थी जीवन के प्रति पूर्ण स्वीकार और उत्सव। वे धार्मिक रूढ़िवादिता, संगठित धर्म, गांधीवाद के कुछ पहलुओं और पारंपरिक नैतिकता के कट्टर आलोचक थे। उन्होंने मानव कामुकता के प्रति एक खुले और विज्ञान-सम्मत दृष्टिकोण की वकालत की, जो उस समय के लिए क्रांतिकारी था। "नव-संन्यास" के माध्यम से उन्होंने संन्यास की पुरानी अवधारणा को बदलते हुए इसे समकालीन जीवन में एक जीवंत साधना के रूप में पेश किया।

*अपने जीवनकाल में उन्होंने भारत में पुणे और अमेरिका में ओरेगॉन राज्य में "रजनीश पुरम" नामक विशाल आश्रमों की स्थापना की, जो अंतरराष्ट्रीय स्तर पर चर्चा और विवाद के केंद्र बने। अपने अंतिम वर्षों में उन्होंने 'ओशो' नाम अपनाया, जिसकी व्युत्पत्ति 'ओशनिक' (सागरीय) शब्द से बताई और इसका अर्थ "सागर में विलीन होने का अनुभव करने वाला" बताया। 19 जनवरी 1990 को पुणे में उनका निधन हो गया।

👨‍👩‍👧 "ओशो के माता-पिता"

*ओशो का जन्म एक तेरा पंथी दिगंबर जैन परिवार में हुआ था।

 *पिता का नाम: बाबूलाल जैन

*माता का नाम: सरस्वती जैन

*वे अपने माता-पिता की ग्यारह संतानों में सबसे बड़े थे। ओशो ने स्वयं बताया है कि उनके बचपन के प्रारंभिक सात वर्ष उनकी नानी के साथ बीते, जिन्होंने उन्हें पारंपरिक रूढ़िवादी शिक्षाओं से दूर रखते हुए पूर्ण स्वतंत्रता दी। ओशो का मानना था कि इस स्वतंत्र वातावरण का उनके व्यक्तित्व के विकास पर गहरा सकारात्मक प्रभाव पड़ा। हालांकि वे एक धार्मिक परिवार से ताल्लुक रखते थे, किंतु बाद के जीवन में उन्होंने संस्थागत धर्मों की कठोर आलोचना की और अपनी एक स्वतंत्र आध्यात्मिक पहचान बनाई।

💒 "ओशो का विवाह एवं पत्नी"

*ओशो ने कभी औपचारिक शादी नहीं की थी। उन्होंने व्यक्तिगत और आध्यात्मिक जीवन में स्वतंत्रता पर बल दिया। हालांकि, उनके जीवन में कुछ महिलाएं निजी सहयोगी के रूप में रहीं। इनमें सबसे उल्लेखनीय हैं माँ योग लक्ष्मी, जो 1968 से 1981 तक उनकी प्रमुख सहायक और सचिव रहीं।

*इसके अलावा, एक अंग्रेज महिला क्रिस्टीना वुल्फ (जिन्हें ओशो ने माँ योग विवेक नाम दिया) का भी उनके जीवन में विशेष स्थान था। ओशो उन्हें अपने पिछले जन्म की मित्र मानते थे और वे उनकी निजी सहयोगी रहीं। ये संबंध पारंपरिक विवाह की बजाय आध्यात्मिक साझेदारी और सहयोग के थे।

🏫 "ओशो की स्कूली शिक्षा" 

*ओशो ने अपनी प्रारंभिक और माध्यमिक शिक्षा मध्य प्रदेश के गाडरवारा शहर में प्राप्त की।

*विद्यालय का नाम: उन्होंने शासकीय आदर्श उच्चतर माध्यमिक विद्यालय, गाडरवारा में पढ़ाई की।

*बचपन से ही वे गंभीर, स्वतंत्र चेता और तर्कशील प्रवृत्ति के थे। विद्यार्थी जीवन में ही उन्होंने एक कुशल वक्ता के रूप में पहचान बना ली थी। बी.ए. करने के बाद उन्होंने जबलपुर के हितकारिणी कॉलेज में दाखिला लिया, लेकिन दर्शनशास्त्र के एक प्रोफेसर से मतभेद के कारण उन्हें कॉलेज छोड़ना पड़ा। बाद में उन्होंने जबलपुर के डी.एन. जैन कॉलेज से शिक्षा जारी रखी।

💡 "संभोग से समाधि की ओर": विवाद और तर्क

"संभोग से समाधि की ओर" ओशो के सबसे चर्चित और विवादास्पद प्रवचन-श्रृंखलाओं में से एक है, जो बाद में पुस्तक के रूप में प्रकाशित हुई। इस विचार को समझने के लिए उसके सामाजिक-दार्शनिक संदर्भ को देखना जरूरी है।

*01. ऐतिहासिक एवं सामाजिक पृष्ठभूमि: ओशो ने भारतीय समाज में धर्म और आध्यात्मिकता के नाम पर फैले कामुकता के प्रति दमन और हीनभावना को चुनौती दी। उनका तर्क था कि किसी भी प्राकृतिक ऊर्जा को दबाने से वह विकृत हो जाती है और मनोरोग पैदा करती है।

*02. मनोवैज्ञानिक एवं आध्यात्मिक दृष्टिकोण: ओशो के लिए 'संभोग' केवल एक शारीरिक क्रिया नहीं, बल्कि मानवीय ऊर्जा का सबसे शक्तिशाली स्रोत था। उनकी दृष्टि में:

*संभोग: ऊर्जा का आदिम और विसर्जनकारी (कैथार्टिक) रूप है।

*समाधि: वही ऊर्जा जब चेतना में परिवर्तित होकर आनंद के उच्चतम शिखर पर पहुंचती है।

*उनका प्रस्ताव था कि इस शक्तिशाली ऊर्जा का दमन न करके, उसे जागरूकता, प्रेम और ध्यान के माध्यम से परिष्कृत और रूपांतरित किया जाए। यह प्रक्रिया 'समाधि' (पूर्ण एकात्मता और आनंद की अवस्था) तक ले जा सकती है।

*03. सामाजिक प्रतिक्रिया एवं विवाद: यह विचार उस जमाने में अत्यंत क्रांतिकारी और आपत्तिजनक माना गया।

*रूढ़िवादी आलोचना: पारंपरिक धार्मिक हलकों ने इसे अनैतिक, भौतिकवादी और आध्यात्मिकता का अपमान बताया।

*स्वीकृति: दूसरी ओर, बहुत से लोगों, विशेषकर युवाओं और पश्चिमी अनुयायियों ने इसे एक मुक्तिदायक और वैज्ञानिक दृष्टिकोण के रूप में देखा, जो मानव मन की गहरी समझ रखता है।

*04. समकालीन प्रासंगिकता: आज मनोविज्ञान और समाज भी मानवीय कामुकता के प्रति अधिक खुले दृष्टिकोण को स्वीकार करते हैं। ओशो का यह प्रवचन, अपने चरम रूप में, प्रकृति प्रदत्त ऊर्जा के सृजनात्मक उपयोग और जीवन के प्रति समग्र स्वीकार की बात करता है, जो आज भी चर्चा का विषय बना हुआ है।

☠️ "ओशो के निधन की परिस्थितियां: एक अनसुलझा रहस्य"?

*ओशो का 19 जनवरी 1990 को पुणे स्थित उनके आश्रम में निधन हो गया। आधिकारिक तौर पर मृत्यु का कारण हृदय गति रुकना (हार्ट फेलियर) बताया गया। उनके छोटे भाई स्वामी शैलेंद्र सरस्वती के अनुसार, यह एक स्वाभाविक मृत्यु थी और उनके परिवार में मधुमेह, उच्च रक्तचाप व हृदय रोग का पारिवारिक इतिहास था।

*हालांकि, उनकी मृत्यु को लेकर कई रहस्य और विवाद भी जुड़े हैं।

*असामान्य परिस्थितियां: मृत्यु प्रमाण पत्र जारी करने वाले डॉक्टर गोकुल गोकाणी ने बाद में दावा किया कि उन्हें ओशो के पास जाने तक नहीं दिया गया और मृत्यु का कारण लिखने के लिए दबाव डाला गया।

*शीघ्र अंतिम संस्कार: आश्रम में किसी की मृत्यु पर उत्सव मनाने की परंपरा के बावजूद, ओशो का अंतिम संस्कार मृत्यु की घोषणा के मात्र एक घंटे के भीतर कर दिया गया, जिसे संदेह की दृष्टि से देखा गया।

*पूर्वाभास: ओशो के भाई के अनुसार, उन्होंने अपनी मृत्यु से लगभग 284 दिन पूर्व (10 अप्रैल 1989) ही यह घोषित कर दिया था कि यह उनका अंतिम प्रवचन है और उनकी ऊर्जा लौट रही है।

"निष्कर्ष": 

*जबकि परिवार इसे एक प्राकृतिक और पूर्वाभास के साथ घटी मृत्यु मानता है, तथ्य यह है कि आश्रम के भीतर की घटनाओं, डॉक्टर के आरोपों और शीघ्र अंतिम संस्कार ने एक स्थायी रहस्य का आवरण बना दिया है। इस विवाद ने ओशो की विरासत को और भी जटिल बना दिया है।

👤 "जीवन यात्रा: चंद्रमोहन जैन से भगवान श्री रजनीश तक"

*ओशो का जन्म 11 दिसंबर 1931 को मध्य प्रदेश के कुचवाड़ा गांव में चंद्रमोहन जैन के रूप में हुआ था। बचपन से ही स्वतंत्रचेता, तर्कशील और विद्रोही प्रवृत्ति के थे। युवावस्था में वे कुछ समय के लिए आज़ाद हिंद फ़ौज से भी जुड़े थे। उन्होंने दर्शनशास्त्र में उच्च शिक्षा प्राप्त की और जबलपुर विश्वविद्यालय में प्रोफेसर के रूप में अपना करियर शुरू किया। हालांकि, 1966 में उन्होंने यह नौकरी छोड़ दी और पूरे भारत में यात्रा करते हुए एक सार्वजनिक वक्ता के रूप में अपनी विचारधारा का प्रचार शुरू किया। इस दौरान उन्हें 'आचार्य रजनीश' के नाम से जाना जाने लगा।

"उनकी यात्रा के प्रमुख पड़ाव":

*मुंबई (1970): यहां उन्होंने 'नव-संन्यास' आंदोलन की शुरुआत की, जहां संन्यासियों को गेरुआ वस्त्र पहनने की बजाय माला और नया नाम दिया जाता था।

*पुणे आश्रम (1974): यहां स्थापित आश्रम पश्चिमी अनुयायियों के लिए एक प्रमुख केंद्र बन गया, जहां ध्यान के साथ-साथ मनोचिकित्सा के आधुनिक तरीके भी सिखाए जाते थे।

*अमेरिका प्रवास (1981-85): ओरेगॉन, अमेरिका में उन्होंने 'रजनीशपुरम' नामक एक विशाल कम्यून की स्थापना की, जो 93 रोल्स-रॉयस कारों के संग्रह और विलासितापूर्ण जीवनशैली के कारण विवादों में घिर गया। 1985 में उन्हें अमेरिका से निर्वासित कर दिया गया।

*अंतिम दिन: 21 देशों से प्रवेश नामंजूर होने के बाद, वे पुणे के अपने आश्रम में लौट आए, जहां 19 जनवरी 1990 को उनकी मृत्यु हो गई।

💡 "विचारधारा एवं दर्शन: एक विद्रोही संत"

*ओशो का दर्शन किसी एक परंपरा में नहीं बांधा। उन्होंने पूर्व और पश्चिम के दर्शन को मिलाकर एक नया मार्ग प्रस्तुत किया।

"मुख्य शिक्षाएं":

*परम सत्य की सीधी अनुभूति: ओशो का मानना था कि आध्यात्मिक अनुभव किसी भी संगठित धर्म, पंथ या पूजा-पद्धति तक सीमित नहीं है। वे धार्मिक रूढ़ियों, कर्मकांडों और संस्थागत धर्म के कटु आलोचक थे।

*जीवन का पूर्ण स्वीकार: उन्होंने पारंपरिक त्याग और कष्ट साधना का विरोध किया। उनकी शिक्षा थी कि जीवन के हर पहलू—प्रेम, कामुकता, धन, सुख—को पूरी तरह से जिया जाना चाहिए, बिना लगाव के।

*ध्यान का नया स्वरूप: उन्होंने 'डायनमिक मेडिटेशन' जैसी सक्रिय ध्यान तकनीकें विकसित की, जो आधुनिक मनुष्य के तनाव और दमित ऊर्जा को मुक्त करने में सहायक हैं।

*मौलिक चिंतन: उन्होंने गांधीवाद, समाजवाद, पूंजीवाद सभी पर अपनी मौलिक और अक्सर आलोचनात्मक राय रखी।

⚖️ "विवाद एवं विरासत"

*ओशो का जीवन प्रशंसा और विवाद के बीच झूलता रहा।

*विवाद: उनके खुले विचार, विशेषकर कामुकता के प्रति दृष्टिकोण, भोग-विलासितापूर्ण जीवनशैली और अमेरिका में उनके कम्यून से जुड़े कानूनी झगड़ों ने उन्हें लगातार विवादों में रखा।

*विरासत: उनकी मृत्यु के तीन दशक बाद भी उनकी लोकप्रियता बरकरार है। पुणे का उनका आश्रम अब 'ओशो इंटरनेशनल मेडिटेशन रिसॉर्ट' के नाम से एक बड़ा आध्यात्मिक केंद्र है। उनके 600 से अधिक ग्रंथ, हज़ारों घंटों के ऑडियो-वीडियो प्रवचन दुनिया भर में लोगों का मार्गदर्शन कर रहे हैं।

✨ "निष्कर्ष"

*ओशो एक ऐसे युगदृष्टा थे जिन्होंने आध्यात्मिकता को रूढ़ियों के भंवर से निकालकर आधुनिक, व्यावहारिक और व्यक्तिगत अनुभव का विषय बनाया। "परमात्मा कहाँ है?" के प्रश्न पर बालसेन का जो उत्तर उन्होंने सुनाया—"परमात्मा वहां होता है जहां आदमी उसे घुसने देता है"—वह उनके समग्र दर्शन का सार है। उनके लिए, ईश्वर की खोज बाहरी तीर्थयात्रा नहीं, बल्कि अंतर्मन के द्वार खोलने का नाम है, और यह कार्य बिना भक्ति, बिना समर्पण और बिना आत्म सत्य के संभव नहीं।

*ध्यान दें: यह लेख ओशो के जीवन एवं दर्शन पर उपलब्ध सार्वजनिक सूचनाओं के आधार पर तैयार किया गया है। यह किसी भी प्रकार की आध्यात्मिक सलाह नहीं है। ओशो एक जटिल व्यक्तित्व थे और उनके बारे में विभिन्न मत प्रचलित हैं। गहन अध्ययन के लिए उनके मूल प्रवचनों को पढ़ने की सलाह दी जाती है।

"डिस्क्लेमर"

*इस ब्लॉग में प्रस्तुत सामग्री श्री रजनीश (जिन्हें ओशो के नाम से भी जाना जाता है) के जीवन, दर्शन, घटनाओं और विरासत पर सार्वजनिक रूप से उपलब्ध सूचनाओं, दस्तावेज़ों, पुस्तकों, प्रवचनों एवं विभिन्न विश्लेषणात्मक स्रोतों के आधार पर तैयार की गई एक सूचनात्मक, विवरणात्मक एवं चिंतनशील प्रस्तुति है।

*यह ब्लॉग किसी भी प्रकार से आध्यात्मिक मार्गदर्शन, *धार्मिक शिक्षा या व्यक्तिगत सलाह का दावा नहीं करता है। ओशो एक अत्यंत जटिल एवं बहुआयामी व्यक्तित्व थे, जिनके बारे में विश्वभर में विविध, कई बार परस्पर विरोधी भी, मत प्रचलित हैं। यहां उल्लिखित तथ्यों, व्याख्याओं एवं विवरणों का उद्देश्य पाठक को एक व्यापक एवं संतुलित सन्दर्भ प्रदान करना है, न कि किसी निश्चित निष्कर्ष या विश्वास को थोपना।

*इस लेख में वर्णित ऐतिहासिक घटनाओं, व्यक्तिगत जीवन के विवरण एवं दार्शनिक अवधारणाओं की व्याख्या लेखक के अपने बोध, समझ एवं शोध पर आधारित है। विशेष रूप से ओशो के निधन से जुड़ी परिस्थितियों, उनके विवादित प्रवचनों एवं सामाजिक प्रतिक्रियाओं के संबंध में मौजूद विभिन्न पक्षों एवं सिद्धांतों को प्रस्तुत करने का प्रयास किया गया है।

*पाठकों से विनम्र अनुरोध है कि वे इस सामग्री को किसी निश्चित सत्य या अंतिम निर्णय के रूप में ग्रहण न करें। ओशो के मूल प्रवचनों, पुस्तकों एवं अधिकृत सामग्री का स्वयं अध्ययन करना ही उनके दर्शन को समझने का सर्वोत्तम मार्ग है। किसी भी गहन आध्यात्मिक अभ्यास या जीवनशैली में परिवर्तन के पूर्व किसी योग्य एवं प्रामाणिक गुरु अथवा विशेषज्ञ से परामर्श अवश्य लें।

*लेखक एवं प्रकाशक इस ब्लॉग में दी गई किसी भी जानकारी के पाठक द्वारा किए गए किसी भी प्रकार के प्रयोग, निर्णय या व्याख्या के परिणामों के लिए किसी भी प्रकार से उत्तरदायी नहीं होंगे। यह सामग्री केवल शैक्षणिक एवं जानकारी के उद्देश्य से प्रस्तुत की गई है।


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