क्या आपको पता है भगवान भोलेनाथ की जगह शिवलिंग की पूजा क्यों की जाती है।
कैसे प्राप्त हुआ भगवान भोलेनाथ को डमरू, त्रिशूल और नाग देवता जानें विस्तार सें।
शिवलिगं कैसे हुई उत्पत्ति और क्यों की जाती जलाभिषेक
पौराणिक कथाओं के अनुसार एक समय की बात है। एक बार कुछ स्त्रियां जंगल में लकड़ीयां काटकर लाने के लिए गई हुई थी। उस समय भगवान शिव अपने मूलभूत रूप में अर्थात पूरी तरह नग्न हालत में उन सभी स्त्रियों के पास पहुंच गए और अठखेलियां करने लगे।
यह देखकर सभी स्त्रियों शर्म से लज्जित हो गई और अपने आश्रम में वापस लौट गई। लेकिन कुछ स्त्रियां भगवान शिव के इस रूप को देखकर मोहित और आकर्षित हो गयी। वे स्त्रियां काम वासना में इतनी ज्यादा उन्मादी हो गई की उन्हें अच्छे-बुरे का भान नहीं रहा। जिसके बाद वे स्त्रियां भगवान शिव का अलिंगन कर छेड़छाड़ करने लगी। रतिक्रिया करने के लिए भोलेनाथ को उकसाने लगी।
ऋषियों के श्राप से कटा शिवजी का लिंग
उसी समय वही रास्तें से कुछ ऋषि गुजर रहे थे। भगवान शिव को इस अवस्था में देखकर वह बहुत ज्यादा क्रोधित हो उठे और बोले कि हे शिव वेद मार्ग पर चलने वाले तुम इस प्रकार वेदों के विरुद्ध कार्य क्यों कर रहे हो तुम। वास्तव में इस तरह के कार्य तुम्हें शोभा नहीं देता। तुम देवों के देव महादेव हो।
ऋषियों के बात सुनकर भगवान भोलेनाथ ने कोई जबाव नही दिया। जिसके बाद सभी ऋषि और ज्यादा क्रोधित हो उठे और उन्हें श्राप दे दिया कि तुम्हारा लिंग कटकर जमीन पर गिर जाए।
अग्नि पिंड बना शिवजी लिंग
इसके बाद तीनों लोकों में त्राहिमाम् मच गया। देवताओं और ऋषियों ने मिलकर अग्नि को समाप्त करने के लिए तरह-तरह के उपाय करने लगे। जलधारा से उसकी लिंग की अग्नि को समाप्त करने की कोशिश की जाने लगी।
सभी तरह के उपाय व्यर्थ हो गए।जिसके बाद ऋषियों को अपनी भूल का अहसास हुआ। इस समस्या का समाधान पाने के लिए सभी ऋषि ब्रह्मा जी के पास गए। ऋषियों ने ब्रह्मा जी को पूरी बात बताई। ब्रह्मा जी के पास भी इस समस्या का कोई समाधान नही थी।
जिसके बाद ब्रह्मा जी ने सभी ऋषियों को भगवान विष्णु के पास जाने को कहा। सभी ऋषि भगवान विष्णु के पास जाने लगे। रास्ते में ही भगवान विष्णु मिल गए। उन्होंने सभी ऋषियों से पार्वती जी के पास जाने के लिए कहा।
भगवान विष्णु ने कहा कि इस ज्योतिर्लिंग पार्वती जी के अलावा कोई धारण नहीं कर सकता। यह सुनकर सभी ऋषियों ने माता पार्वती की आराधना करने लगे। माता पार्वती प्रसन्न हुई। माता पार्वती ने अग्नि पींड से छुटकारा दिलावाने के लिए अपनी सहमति प्रदान कर दी।
मां पार्वती बनी कल्याण कर्त्ता
जिसके बाद सभी ऋषियों के आग्रह पर माता पार्वती ने उस ज्योतिर्लिंग को अपनी योनि में धारण कर लिया। उसी समय से उस ज्योतिर्लिंग की पूजा तीनों लोकों में की जाने लगी। उसी समय से शिवलिंग व पार्वतीभग की प्रतिमा का पूजन संसार में आरंभ हुआ था।
भोलेनाथ के नाग ,त्रिशुल और डमरू का रहस्य जानें
शिवजी और नाग का रहस्य
भगवान शिव के गले में नाग सुशोभित है। जो नागों के राजा कहे जाते हैं। भगवान शिव के गले में जो नाग है उसका नाम वासुकी है। यह नागलोक पर राज किया करते थे। वासुकी ने भगवान शिव की घोर तपस्या की थी। जिसकी वजह से भगवान शिव ने वासुकी नाग को नागलोक का राजा होने का वरदान दे दिया। साथ ही वासुकी नाग को अपने गले में हमेशा लिपटे रहने का भी वरदान भोलेनाथ ने दें दिया।
शिवजी और त्रिशुल का रहस्य
विद्वानों के अनुसार जब भगवान शिव प्रकट हुए थे।उस समय वह रज,तम और सत यह गुण लेकर सृष्टि में आए थे। भगवान शिव के इन तीन गुणों की वजह से त्रिशुल की उत्पत्ति हुई थी। इन तीनों गुणों को समान रखने के लिए ही भगवान शिव ने इन तीनों के रूप में त्रिशुल ही उत्पत्ति की और इस त्रिशुल को अपने हाथ में रखा।
शिवजी और डमरू का रहस्य
भगवान शिव के हाथ में डमरू भी सुशोभित है। पुराणों के अनुसार जब देवी सरस्वती ने सृष्टि में प्रकट हुई थी तो उन्होंने ध्वनि को जन्म दिया था। लेकिन इस ध्वनि के पास सुर और संगीत नही थे। इसलिए भगवान शिव ने नाचते हुए चौदह बार अपने डमरु को बजाया। जिसकी वजह से संगीत उत्पन्न हुआ था। इसलिए डमरू को ब्रह्म स्वरूप भी कहा जाता है।
शिवलिंग पूजा की पौराणिक कथा
पौराणिक कथा के अनुसार वाराणसी के वन में एक भील रहा करता था।जिसका नाम गुरुद्रुह था। वह वन में रहने वाले प्राणियों का शिकार करके अपने परिवार का पालन-पोषण करता था।
तभी उसे वन में एक झील दिखाई दी। उसने सोचा मैं यहीं पेड़ पर चढ़कर शिकार की राह देखता हूं। कोई न कोई जंगली जानवर यहां पानी पीने जरूर आएगा।
यह सोचकर वह पात्र में जल भरकर बेल के पेड़ (बिल्ववृक्ष) पर चढ़ गया। उस वृक्ष के नीचे शिवलिंग स्थापित था। थोड़ी देर बाद वहां एक हिरनी आई।
शिकारी बोला कि तुम्हें मारकर मैं अपने परिवार का भरण-पोषण करूंगा। शिकारी गुरुद्रुह की बात सुनकर हिरनी बोली कि मेरे नौनिहाल बच्चे मेरी राह देख रहे होंगे।
बच्चों को मैं अपनी बहन को देकर आपस लौट आऊंगी। हिरनी के ऐसा कहने पर शिकारी ने उसे जाने दिया।
थोड़ी देर बाद उक्त हिरनी की बहन उसे खोजते हुए झील के पास आ गई। शिकारी ने उसे देखकर पुन: अपने धनुष पर प्रत्यंचा चढ़ाया। इस बार भी रात के दूसरे प्रहर में बेल वृक्ष के पत्ते व जल शिवलिंग पर गिरने से शिव के दूसरे पहर की पूजा हो गई।
उस हिरनी ने भी अपने बच्चों को सुरक्षित स्थान पर रखकर आने की बात शिकारी से कहीं। शिकारी ने उस हिरनी को भी जाने दिया। थोड़ी देर बाद वहां एक हिरन अपनी हिरनी को खोजते हुए झील पर आया।
इस बार भी उसी तरह बेलपत्र और जल गिरा और तीसरे प्रहर में भी शिवलिंग की पूजा हो गई। वह हिरन भी अपने बच्चों को सुरक्षित स्थान पर छोड़कर आने की बात शिकारी से कहकर चला गया।
जब वह तीनों हिरनी और हिरन मिले तो अपने वचन की प्रतिज्ञाबद्ध होने के कारण तीनों हिरन और हिरनी शिकारी के पास आ गए। सबको एक साथ देखकर शिकारी बहुत ज्यादा खुश हुआ और उसने फिर से अपने धनुष पर प्रत्यंचा चढ़ाया जिससे चौथे प्रहर की पूजा शिवलिंग की हो गई।
इस प्रकार शिकारी गुरुद्रुह दिनभर भूखा-प्यासा रहा। साथ ही वह रातभर जागता रहा। इस प्रकार चारों प्रहर की पूजा अंजाने में ही उसनेे शिव की पूजा कर दिया। शिकारी ने शिवरात्रि का व्रत रातभर जागकर संपन्न किया। चारों पहर की पूजा करने के प्रभाव से उसके सारे पाप तत्काल ही खत्म हो गया।
पुण्य प्राप्त होते ही शिकारी ने सभी हिरनों को मारने का विचार छोड़ दिया।
उसी समय शिवलिंग से भगवान भोलेनाथ प्रकट हुए और उन्होंने शिकारी गुरुद्रुह को वरदान दिया कि त्रेतायुग में तुम भील कुल में जन्म लेगा। भगवान राम तुम्हारे घर आएंगे और तुम्हारे साथ दोस्ती करेंगे। भगवान श्रीराम के कृपा से तुझे मोक्ष भी प्राप्त करोगे। इस प्रकार अंजाने में किए गए शिवरात्रि व्रत से भगवान शंकर ने शिकारी को मोक्ष प्राप्त होने का रास्ता दिखा दिया।