जब अर्जुन के प्राण बचाने श्रीकृष्ण दौड़े चले आए:नर और नारायण का अटूट बंधन

"जानिए महाभारत के उस रहस्यमय प्रसंग को जब अर्जुन का सिर उनके पुत्र बब्रु वाहन ने काट दिया। मां गंगा क्यों लेना चाहती थीं प्रतिशोध? श्रीकृष्ण कैसे बन गए अर्जुन के रक्षक? पढ़ें यह ज्ञानवर्धक ब्लॉग" Mahabharat Katha

Mother Kunti weeps over the dead body of her son Arjuna, while Krishna and Babruvahana stand beside her.

"अर्जुन और बब्रुवाहन, अर्जुन का वध, श्रीकृष्ण और अर्जुन, मां गंगा का प्रतिशोध, अश्वमेध यज्ञ, चित्रांगदा और अर्जुन, कुंती का विलाप, महाभारत की दुर्लभ कथा, भक्त और भगवान, नर नारायण। मां गंगा के प्रतिशोध से मोक्ष तक की पूर्ण कथा। विस्तार से पढ़ें मेरे ब्लॉग पर" 

"प्रस्तावना: भक्त और भगवान का अद्भुत मिलन"

*महाभारत का युद्ध समाप्त हो चुका था। युधिष्ठिर का राज्याभिषेक हो गया था। लेकिन पांडवों की परीक्षाएं अभी खत्म नहीं हुई थीं। अपने साम्राज्य का विस्तार करने और धर्म की स्थापना के लिए युधिष्ठिर ने अश्वमेध यज्ञ का आयोजन किया। 

*इस यज्ञ का घोड़ा स्वतंत्र रूप से विभिन्न राज्यों में घूमता था और कोई भी राजा यदि उसे रोकने का प्रयास करता, तो अर्जुन के साथ उसका युद्ध अवश्यंभावी था। यह कहानी है उसी अश्वमेध यज्ञ के घोड़े की, एक अनजाने पुत्र बब्रुवाहन की।

*एक मां के प्रतिशोध की और अंततः भगवान श्रीकृष्ण की उस अटूट श्रद्धा की, जो अपने भक्त के संकट के क्षण में उन्हें द्वारिका से दौड़ा ले आई। यह कथा केवल एक घटना का वर्णन नहीं, बल्कि भक्ति, कर्तव्य, प्रतिशोध और दया के गूढ़ संबंधों को समझने का एक मार्ग है।

"अश्वमेध यज्ञ: विजय और धर्म का प्रतीक"

*अश्वमेध यज्ञ प्राचीन भारत में एक सम्राट द्वारा कराया जाने वाला सबसे महत्वपूर्ण और विस्तृत यज्ञ माना जाता था। यह न केवल राजा की शक्ति और साम्राज्य के विस्तार का प्रतीक था, बल्कि धर्म की पुनर्स्थापना और चक्रवर्ती सम्राट के रूप में उसकी प्रतिष्ठा का भी द्योतक था। यज्ञ का एक चयनित घोड़ा एक वर्ष तक स्वतंत्र रूप से विभिन्न राज्यों में घूमता था। 

*घोड़े के पीछे राजा की सेना चलती थी। जो भी राज्य उस घोड़े को रोकता, उसे सेना के साथ युद्ध करना पड़ता था। यदि कोई राजा घोड़े को रोकने में सफल हो जाता, तो यह समझा जाता था कि अश्वमेध यज्ञ करने वाले राजा का अधिकार उस भूमि पर नहीं है। यदि वह पराजित हो जाता, तो उसे घोड़े के स्वामी की अधीनता स्वीकार करनी पड़ती थी।

*महाभारत के युद्ध के बाद, जब युधिष्ठिर ने हस्तिनापुर का सिंहासन संभाला, तो उन्होंने शांति और धर्म के युग की स्थापना के लिए अश्वमेध यज्ञ करने का निर्णय लिया। इस यज्ञ की सफलता की जिम्मेदारी अर्जुन पर थी। वह घोड़े की रक्षा के लिए उसके पीछे-पीछे चल रहे थे। अर्जुन की वीरता और दिव्य विद्या के कारण, अधिकांश राजाओं ने घोड़े को रोकने का साहस नहीं किया। 

*लेकिन जब घोड़ा मणिपुर की ओर बढ़ा, तो वहां की परिस्थितियां बिल्कुल अलग थीं। मणिपुर के राजा बब्रुवाहन थे, जो अर्जुन के ही पुत्र थे। अर्जुन का विवाह मणिपुर की राजकुमारी चित्रांगदा से हुआ था, लेकिन विवाह के बाद अर्जुन उन्हें छोड़कर चले गए थे। चित्रांगदा ने ही बब्रुवाहन का पालन-पोषण किया था। एक मां के रूप में उपेक्षा की पीड़ा और एक पुत्र के रूप में पिता के प्रति जन्मजात आकर्षण और क्रोध के बीच यहीं से इस त्रासदी की शुरुआत हुई।

"पिता और पुत्र का भीषण संग्राम: युद्ध का चित्रण"

*मणिपुर का युद्धक्षेत्र सामान्य नहीं था। एक ओर महान धनुर्धर अर्जुन थे, जिनके कंधों पर अश्वमेध यज्ञ की सफलता की जिम्मेदारी थी। दूसरी ओर उनका ही रक्त, उनका पुत्र बब्रुवाहन था, जो अपनी मां के दिए वचन को पूरा करने के लिए संकल्पबद्ध था। वह युद्ध भीषण था। दोनों ओर से बाणों की वर्षा होने लगी। अर्जुन प्रारंभ में संयम बरत रहे थे। वह इस युवा योद्धा की वीरता से प्रभावित थे, लेकिन उन्हें उसकी वास्तविक पहचान का ज्ञान नहीं था।

*बब्रुवाहन ने पहले अर्जुन के साथ आए भीम को अपने बाणों से मूर्छित कर दिया, जिससे अर्जुन की चिंता बढ़ गई। फिर जब पिता-पुत्र का सीधा युद्ध शुरू हुआ, तो बब्रुवाहन की निपुणता ने अर्जुन को चकित कर दिया। वह समझ गए कि यह कोई साधारण योद्धा नहीं है। अर्जुन के लिए यह एक विचित्र स्थिति थी – वह अपने पुत्र को चोट पहुंचाना नहीं चाहते थे, लेकिन यज्ञ के घोड़े की रक्षा का दायित्व भी उन पर था। वह केवल बब्रुवाहन के प्रहारों को रोक रहे थे, स्वयं पूरी शक्ति से प्रहार नहीं कर रहे थे।

*जब बब्रुवाहन को लगा कि सामान्य युद्ध में अर्जुन को परास्त कर पाना असंभव है, तो उन्होंने अपना अंतिम हथियार निकाला – कामाख्या देवी से प्राप्त दिव्य बाण। यह बाण इतना शक्तिशाली था कि उसके सामने कोई भी टिक नहीं सकता था। एक क्षण में ही, उस दिव्य बाण ने अर्जुन का सिर उनके धड़ से अलग कर दिया। महान धनुर्धर, हरियाणी वीर अर्जुन, भूमि पर गिर पड़े। सन्नाटा छा गया। जिस अर्जुन को स्वयं भगवान कृष्ण ने गीता का उपदेश देकर अजेय बना दिया था, वह आज अपने ही अज्ञात पुत्र के हाथों मृत्यु को प्राप्त हुए थे।

"एक मां का टूटा हृदय: कुंती का विलाप"

*जब अर्जुन के मृत शरीर के पास पहुंची, तो कुंती का हृदय टूट गया। उनका संसार अंधकारमय हो गया। वह अपने पुत्र के शरीर से लिपट कर विलाप करने लगीं। उनके आंसुओं की धारा बह निकली। उन्होंने कहा, "हे पुत्र अर्जुन! तुमने मुझे इस संसार के मझधार में अकेला छोड़ दिया। एक मां की सबसे बड़ी इच्छा यही होती है कि उसके बच्चे उसके अंतिम समय में उसके साथ हों। लेकिन हे पुत्र, तुम तो मुझसे पहले ही इस दुनिया को छोड़कर चले गए। यह कैसा न्याय है?"

*वह आकाश की ओर देखकर रोती हुई बोलीं, "हे श्रीकृष्ण! आप उसके सखा थे, आप उसके सारथी थे। आपने उसे गीता का ज्ञान दिया था। आपने उसे वचन दिया था कि जहां नारायण हैं, वहां नर की विजय अवश्य होती है। लेकिन आज यह क्या हो गया? जिस अर्जुन के रथ पर स्वयं आप सारथी बने, जिसके लिए आपने सुदर्शन चक्र उठाया, वह अर्जुन आज धरती पर निष्प्राण पड़ा है। क्या यह आपके वचनों का मखौल नहीं है? हे केशव, मुझे बताओ, यह कैसे हो गया?"

*कुंती का विलाप केवल एक मां का शोक नहीं था, बल्कि उस आस्था पर एक प्रश्नचिह्न था, जो हर भक्त के मन में होता है जब उसे अकथनीय पीड़ा सहनी पड़ती है। वह अर्जुन को केवल अपना पुत्र नहीं, बल्कि पांडवों का सबसे बड़ा सहारा मानती थीं। उनके लिए अर्जुन का जाना केवल एक सदस्य की मृत्यु नहीं, बल्कि पूरे परिवार की रीढ़ के टूट जाने के समान था।

"मां गंगा का प्रतिशोध: क्यों चाहती थीं अर्जुन का वध"?

*इस पूरे प्रसंग में सबसे रहस्यमय और चौंकाने वाला पक्ष मां गंगा का प्रवेश था। जब कुंती विलाप कर रही थीं, तब देवी गंगा वहां प्रकट हुईं। उन्होंने कुंती को ढांढस बंधाते हुए कहा कि रोने से कोई लाभ नहीं, क्योंकि अर्जुन को अपने कर्मों का फल मिला है।

*गंगा ने कुंती को महाभारत के युद्ध का एक दुखद प्रसंग याद दिलाया। उन्होंने कहा, "हे कुंती, क्या तुम्हें याद है कि तुम्हारे पुत्र अर्जुन ने मेरे पुत्र भीष्म का वध कैसे किया था? भीष्म अर्जुन को अपना पुत्र समान मानते थे, उसे प्यार करते थे। लेकिन युद्ध के दसवें दिन, जब भीष्म ने अपने हथियार नीचे रख दिए थे, क्योंकि वह शिखंडी पर बाण नहीं चला सकते थे, तब अर्जुन ने शिखंडी की आड़ लेकर मेरे पुत्र की छाती को बाणों से छलनी कर दिया। वह निहत्थे और प्रतिज्ञाबद्ध थे। अर्जुन ने धर्म के मार्ग को छोड़कर, छल से उनका वध किया।"

*गंगा के हृदय में उस दिन का दर्द अभी तक ताजा था। एक मां के रूप में, वह भीष्म की मृत्यु का दुख कभी नहीं भूल सकती थीं। उन्होंने ही बब्रुवाहन को कामाख्या देवी के माध्यम से वह दिव्य बाण प्रदान किया था, जिससे अर्जुन का वध हुआ। गंगा का मानना था कि उन्होंने अर्जुन से उसके कर्म का बदला लेकर अपने पुत्र के प्रति अपना मातृ धर्म निभाया है। उनके लिए, यह "न्याय" था, एक मां का "प्रतिशोध" था। लेकिन क्या वास्तव में प्रतिशोध ही धर्म है? यह प्रश्न श्रीकृष्ण ने उनके सामने रखा।

"पितृहंता क्यों बना बब्रुवाहन? एक टूटा हुआ परिवार"

*बब्रुवाहन के मन में अर्जुन के प्रति क्रोध का बीज उसकी मां चित्रांगदा ने बचपन में ही बो दिया था। अर्जुन ने चित्रांगदा से विवाह तो किया, लेकिन उन्हें और अपने नवजात पुत्र को छोड़कर अपनी यात्रा पर चले गए। उस समय के सामाजिक ढांचे में, एक राजकुमारी के लिए पति द्वारा छोड़ दिया जाना गहरी अपमान और पीड़ा का विषय था।

*चित्रांगदा ने अपने पुत्र बब्रुवाहन को यह तो बताया कि अर्जुन एक महान योद्धा हैं और उन्हें युद्ध में परास्त करना ही उसका लक्ष्य होना चाहिए, लेकिन यह नहीं बताया कि अर्जुन ही उसके पिता हैं। इस एक झूठ ने बब्रुवाहन के जीवन की दिशा ही बदल दी। वह पूरे जीवन इसी संकल्प के साथ बड़ा हुआ कि उसे अर्जुन नामक उस योद्धा को हराना है, जिसने उसकी मां को दुखी किया है। उसने कठोर तपस्या करके कामाख्या देवी से दिव्य बाण प्राप्त किए, जिनका उद्देश्य ही अर्जुन का वध करना था।

*जब अश्वमेध का घोड़ा मणिपुर पहुंचा, तो बब्रुवाहन के लिए यह अपने संकल्प को पूरा करने का सुनहरी अवसर था। उसने घोड़े को रोक लिया। युद्ध में, जब उसे एहसास हुआ कि सामान्य युद्ध में अर्जुन को हराना असंभव है, तो उसने वह दिव्य बाण चला दिया। उसे इस बात का आभास तक नहीं था कि वह अपने ही पिता का वध कर रहा है। यहां बब्रुवाहन एक ट्रैजिक हीरो के रूप में उभरता है - वह एक आज्ञाकारी पुत्र है जो मां के वचन का पालन कर रहा है, एक वीर योद्धा है जो अपने राज्य की प्रतिष्ठा की रक्षा कर रहा है, लेकिन दुर्भाग्य से, वह अनजाने में एक पितृ हंता बन जाता है।

"श्रीकृष्ण का दिव्य हस्तक्षेप और तर्क का बल"

*श्रीकृष्ण, जो सर्वज्ञ हैं, उन्हें पहले से ही ज्ञात था कि मणिपुर में क्या होने वाला है। वह द्वारिका से बिना किसी देरी के दौड़े चले आए। लेकिन तब तक अर्जुन का सिर कट चुका था। जब उन्होंने गंगा मैया को अपने प्रतिशोध की बात करते सुना, तो वह चुप नहीं रह सके।

*श्रीकृष्ण ने गंगा से पूछा, "हे मैया, आप किससे प्रतिशोध ले रही हैं? एक मां से दूसरी मां से? क्या एक मां का हृदय दूसरी मां के दुख से प्रतिशोध ले सकता है?" उन्होंने आगे तर्क दिया कि अर्जुन ने भीष्म पितामह का वध उसी मार्ग से किया था, जिसकी स्वयं भीष्म ने उन्हें सलाह दी थी। और इस युद्ध में तो अर्जुन ने बब्रुवाहन पर प्रहार तक नहीं किया, वह केवल स्वयं की रक्षा कर रहे थे। उन्होंने गंगा के मान का सम्मान किया था क्योंकि बब्रुवाहन ने उनके ही दिए बाण से उन्हें परास्त किया था।

*श्रीकृष्ण के इन तर्कों ने गंगा के क्रोध और प्रतिशोध की भावना को विचलित कर दिया। उन्हें एहसास हुआ कि प्रतिशोध एक अंतहीन चक्र है जो केवल नए दुखों को जन्म देता है। श्रीकृष्ण ने उन्हें एक मार्ग सुझाया – चूंकि उनकी प्रतिज्ञा (प्रतिशोध) पूरी हो चुकी थी, अब वह इसे वापस ले सकती हैं और अर्जुन को पुनर्जीवित करने का मार्ग दिखा सकती हैं। गंगा ने इस पर सहमति जताई और एक दिव्य मंत्र बताया, जिसके प्रयोग से अर्जुन का सिर उनके धड़ से जुड़ गया और वह पुनः जीवित हो उठे।

"कथा से जुड़े कुछ अनसुलझे पहलू"

*01. चित्रांगदा का एकांत: क्या चित्रांगदा ने बब्रुवाहन को सच न बताने का निर्णय सही था? क्या यह केवल क्रोध था या फिर उसने सोचा कि पिता का नाम जानकर बब्रुवाहन का संकल्प कमजोर पड़ जाएगा?

*02. श्रीकृष्ण की भूमिका: श्रीकृष्ण सर्वशक्तिमान थे, फिर भी उन्होंने अर्जुन को मरने क्यों दिया? क्या यह अर्जुन को उसके पूर्व कर्म का फल भोगने के लिए आवश्यक था? क्या यह गंगा मैया के हृदय में छिपे दुख और क्रोध को बाहर निकालने और उसे शांत करने का एक दिव्य उपाय था?

*03. भीष्म की इच्छा: क्या भीष्म पितामह, जो स्वयं अपनी मृत्यु के समय की प्रतीक्षा कर रहे थे, अर्जुन के इस प्रकार वध से सहमत होते? क्या वह चाहते कि उनकी मां इस प्रकार का प्रतिशोध लें?

"पाठकों के लिए प्रश्नोत्तरी" (FAQ)

*प्रश्न: अर्जुन का सिर काटने के बाद भी श्रीकृष्ण उन्हें कैसे बचा सके?

*उत्तर:श्रीकृष्ण ने अर्जुन को बचाया नहीं, बल्कि गंगा मैया को उनके प्रतिशोध के चक्र से मुक्त कराया। उनके तर्कों से गंगा मैया का हृदय परिवर्तन हुआ और उन्होंने स्वयं अर्जुन को पुनर्जीवित करने का मार्ग सुझाया। यह भगवान की लीला थी जो तर्क और प्रेम के माध्यम से घटित हुई।

*प्रश्न: क्या बब्रुवाहन को पता था कि अर्जुन उसके पिता हैं?

*उत्तर:नहीं, युद्ध के समय तक बब्रुवाहन को इस बात का ज्ञान नहीं था। उसकी मां चित्रांगदा ने उसे यह सच्चाई नहीं बताई थी। उसे यह बाद में पता चला, जिससे उसे गहरा पश्चाताप हुआ।

*प्रश्न: इस कथा का मुख्य संदेश क्या है?

*उत्तर:इस कथा का मुख्य संदेश है कि प्रतिशोध एक विनाशकारी भावना है जो सबको दुख पहुंचाती है। जबकि क्षमा और तर्क ही समस्याओं का स्थायी समाधान हो सकते हैं। साथ ही, यह कथा भगवान और भक्त के अटूट संबंध को दर्शाती है - भक्त की चिंता स्वामी की चिंता बन जाती है।

*प्रश्न: क्या यह कथा महाभारत के मुख्य ग्रंथ में है?

*उत्तर:यह कथा महाभारत के "अश्वमेधिक पर्व" में वर्णित है। हालांकि, विभिन्न संस्करणों और क्षेत्रीय महाकाव्यों (जैसे असम का लोक साहित्य) में इसका विस्तार और भिन्नताएं मिलती हैं।

"निष्कर्ष": 

*जहां भक्त है, वहां भगवान हैं

*अर्जुन और बब्रुवाहन की यह कथा अंततः श्रीकृष्ण की विजय के साथ समाप्त होती है। लेकिन यह विजय युद्ध की नहीं, बल्कि तर्क, प्रेम और करुणा की विजय है। यह कथा हमें सिखाती है कि भगवान उसी की रक्षा करते हैं, जो पूर्ण रूप से उन्हें समर्पित होता है। अर्जुन ने अपना सब कुछ श्रीकृष्ण को सौंप दिया था, इसलिए उनकी चिंता श्रीकृष्ण की अपनी चिंता बन गई। जब भक्त के प्राण संकट में होते हैं, तो भगवान का ध्यान स्वतः ही उस ओर चला जाता है, चाहे वह द्वारिका जैसे दूर स्थान पर ही क्यों न हों। यही नर और नारायण का अटूट, अविभाज्य और दिव्य संबंध है।

"डिस्क्लेमर" (सावधानी)

*यह ब्लॉग पोस्ट महाभारत के अश्वमेधिक पर्व और विभिन्न क्षेत्रीय लोककथाओं (विशेष रूप से असम और मणिपुर की परंपराओं) पर आधारित है। कथा के विवरण अलग-अलग स्रोतों में भिन्न हो सकते हैं। यह लेख शैक्षिक और ज्ञानवर्धक उद्देश्यों से तैयार किया गया है। इसका उद्देश्य किसी भी धर्म, संप्रदाय या मान्यता का अपमान करना नहीं है। पाठकों से अनुरोध है कि गहन ज्ञान और मूल ग्रंथों के अध्ययन के लिए संबंधित धार्मिक ग्रंथों और विद्वानों की व्याख्याओं का सहारा लें। लेख में दिए गए तथ्यों और व्याख्याओं के संबंध में लेखक की कोई जिम्मेदारी नहीं होगी।


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