"25 जुलाई 2026, शनिवार को मनाई जाने वाली देवशयनी एकादशी सनातन धर्म में एक विशेष स्थान रखती है। इस दिन भगवान विष्णु क्षीरसागर में चार महीनों के लिए शयन करते हैं, जिसे चातुर्मास कहा जाता है"।
🌸 "क्षीरसागर में शेषनाग पर शयन करते भगवान विष्णु का देवशयनी अवतार 2026" 🌸
"विषय सूची"
*01. देवशयनी एकादशी की तीन पौराणिक कथा:
*02. देवशयनी एकादशी की पूजा विधि
*03. एकादशी के दिन क्या करें और क्या न करें (व्रत नियम)
*04. देवशयनी एकादशी के अनछुए पहलू
*05. प्रश्न और उत्तर (FAQ)
*06. डिस्क्लेमर (अस्वीकरण
"देवशयनी एकादशी का महत्व और इतिहास"
सनातन धर्म में एकादशी व्रतों का विशेष महत्व है, और देवशयनी एकादशी इनमें से एक प्रमुख है। इसे हरिशयनी एकादशी या पद्मनाभा एकादशी भी कहा जाता है। 2026 में यह 25 जुलाई, शनिवार को आषाढ़ मास के शुक्ल पक्ष की एकादशी तिथि पर मनाई जाएगी।
इस दिन से चातुर्मास शुरू होता है, जो चार महीनों तक चलता है। इस दौरान भगवान विष्णु पाताल लोक में राजा बलि के द्वार पर या क्षीरसागर में विश्राम करते हैं, और सभी शुभ कार्य जैसे विवाह, गृह प्रवेश, भूमि पूजन आदि स्थगित हो जाते हैं।
इतिहास की बात करें तो पुराणों में वर्णित है कि इस दिन सूर्य मिथुन राशि से कर्क राशि में प्रवेश करता है, जो वर्षा ऋतु का संकेत है। वैज्ञानिक दृष्टि से भी चातुर्मास में मौसम परिवर्तन के कारण स्वास्थ्य संबंधी सावधानियां बरतनी चाहिए। इस व्रत से पापों का नाश होता है और मनोकामनाएं पूर्ण होती हैं। दक्षिण भारत में इसे 'पद्मनाभा एकादशी' कहा जाता है, जहां भगवान विष्णु को पद्मनाभ स्वरूप में पूजा जाता है।
"शुभ मुहूर्त 2026"
2026 में देवशयनी एकादशी 25 जुलाई, शनिवार को है। एकादशी तिथि प्रारंभ: 24 जुलाई 2026, सुबह 09:13 बजे। समाप्त: 25 जुलाई 2026, सुबह 11:34 बजे। सूर्योदय: लगभग 05:13 AM, सूर्यास्त: 06:30 PM।
चारों पहर पूजा करने का शुभ
25 जुलाई को चौरड़िया पंचांग के अनुसार सुबह 06:53 बजे से लेकर 08:33 बजे तक शुभ मुहूर्त रहेगा। उसी प्रकार 11:52 बजे से लेकर 01:31 बजे तक चर मुहूर्त, संध्या 06:30 बजे से लेकर 07:51 बजे तक लाभ मुहूर्त, रात 10:31 बजे से लेकर 11:52 बजे तक अमृत मुहूर्त और 11:52 बजे से लेकर 01:02 बजे तक चर मुहूर्त रहेगा। सुबह समय अर्थात 26 जुलाई को लाभ मुहूर्त सुबह 03:53 बजे से लेकर 05:14 बजे तक और चर मुहूर्त सुबह 06:30 बजे से लेकर 08:33 बजे तक रहेगा।
उसी प्रकार पंचांग के अनुसार अभिजीत मुहूर्त दिन के 11:25 बजे से लेकर 12:18 बजे तक, विजय मुहूर्त दिन के 02:04 बजे से लेकर 02:58 बजे तक, गोधूलि मुहूर्त शाम 06:30 बजे से लेकर 06:52 बजे बजे तक, निशिता मुहूर्त रात 11:30 बजे से लेकर 12:13 बजे तक और ब्रह्म मुहूर्त अगले सुबह 06:48 बजे से लेकर 04:30 बजे तक रहेगा। इस दौरान अपने सुविधा अनुसार आप भगवान विष्णु की पूजा अर्चना कर सकते हैं।(पंचांग पर आधारित, लोकल पंडित से कन्फर्म करें।)
"देवशयनी एकादशी की पूजा विधि"
देवशयनी एकादशी का व्रत अत्यंत फलदायी माना जाता है। इसे रखने के लिए निम्नलिखित विधि का पालन किया जा सकता है:
"दशमी (एकादशी से एक दिन पहले) के दिन":
*सात्विक आहार: इस दिन से ही ब्रह्मचर्य का पालन करें और सात्विक भोजन ग्रहण करें। लहसुन, प्याज, मांस, मदिरा आदि तामसिक पदार्थों का सेवन वर्जित है।
*व्रत की तैयारी: रात्रि में भगवान का स्मरण करते हुए शीघ्र सोएं।
"एकादशी के दिन":
*ब्रह्म मुहूर्त में उठना: प्रातः ब्रह्म मुहूर्त (लगभग 4-5 बजे) में उठकर स्नान आदि से निवृत्त होकर स्वच्छ वस्त्र धारण करें।
*संकल्प: सबसे पहले व्रत का संकल्प लें। एक कलश में जल भरकर, उस पर श्रीखंड चंदन लगाकर और आम के पत्ते रखकर उसे एकादशी माता का स्वरूप मानकर स्थापित करें। इसके सामने बैठकर संकल्प लें – "मैं आज देवशयनी एकादशी का व्रत रखकर भगवान विष्णु की पूजा-अर्चना करूंगा/करूंगी और अगले दिन द्वादशी को पारण (व्रत तोड़ूंगा/तोड़ूंगी)। इस व्रत से मेरे सभी पाप नष्ट हों और मुझे मोक्ष की प्राप्ति हो।"
"पूजा विधान":
*01. एक चौकी पर पीले वस्त्र बिछाएं।
*02. भगवान विष्णु की मूर्ति या शालिग्राम का स्थापन करें।
*03. उन्हें पंचामृत (दूध, दही, घी, शहद, शक्कर) से स्नान कराएं।
*04. फिर स्वच्छ जल से अभिषेक करें।
*05. चंदन, केसर, हल्दी, अक्षत (चावल), पुष्प, तुलसी दल अर्पित करें।
*06. धूप, दीप, नैवेद्य (फल, मिठाई) अर्पित करें।
*07. भगवान विष्णु के मंत्रों का जाप करें। जैसे - "ॐ नमो भगवते वासुदेवाय" या "ॐ नारायणाय नमः"।
*08. विष्णु सहस्रनामस्तोत्र, एकादशी व्रत कथा का पाठ या श्रवण करें।
*09. आरती करें और प्रसाद वितरण करें।
· रात्रि जागरण: रात में भजन-कीर्तन, सत्संग या भगवान के नाम का स्मरण करते हुए जागरण करना चाहिए। इससे व्रत का फल कई गुना बढ़ जाता है।
"द्वादशी (अगले दिन) के दिन":
*ब्राह्मण भोजन: सुबह पूजा-अर्चना के बाद किसी योग्य ब्राह्मण को भोजन कराएं और दान-दक्षिणा दें।
*पारण: इसके बाद ही स्वयं फलाहार या सात्विक भोजन ग्रहण करके व्रत का पारण (समापन) करें। पारण का समय द्वादशी तिथि समाप्त होने से पहले ही होना चाहिए।
"एकादशी के दिन क्या करें और क्या न करें" (व्रत नियम)
एकादशी व्रत की सफलता के लिए कुछ नियमों का पालन अत्यंत आवश्यक माना गया है।
"क्या करें (Do's)":
*01. सात्विकता: ब्रह्मचर्य का पालन करें और मन, वचन, कर्म से पवित्र रहें।
2. दान-पुण्य: इस दिन अन्नदान, वस्त्र दान, गौदान आदि का विशेष महत्व है।
3. जप और ध्यान: ॐ नमो भगवते वासुदेवाय मंत्र का जाप करें और भगवान विष्णु का ध्यान करें।
4. तुलसी पूजा: तुलसी का पूजन और उसकी परिक्रमा करना शुभ माना जाता है।
5. जागरण: रात्रि में भजन-कीर्तन करते हुए जागरण अवश्य करें।
6. सोने का तरीका: यदि संभव हो तो इस रात भूमि पर ही शयन करें।
7. सेवा भाव: बुजुर्गों, गरीबों और जरूरतमंदों की सेवा करें।
क्या न करें (Don'ts):
1. अन्न का सेवन वर्जित: चावल, गेहूं, दाल, चना, मक्का आदि किसी भी प्रकार के अन्न का सेवन सख्त वर्जित है। मान्यता है कि इस दिन अन्न में 'मद' (नकारात्मक ऊर्जा) प्रवेश कर जाती है।
2. तामसिक पदार्थ: प्याज, लहसुन, मांस, मछली, अंडा और मदिरा का सेवन न करें।
3. विवाद और नकारात्मकता: झूठ न बोलें, किसी की निंदा न करें, क्रोध न करें और विवादों से दूर रहें।
4. बाल और नाखून न काटें: इस दिन बाल कटवाना या नाखून काटना अशुभ माना जाता है।
5. तेल लगाना और मालिश: शरीर पर तेल लगाना और मालिश करना वर्जित है।
6. ब्रह्मचर्य का पालन: इस दिन संयम बरतना चाहिए।
4. "देवशयनी एकादशी के अनछुए पहलू"
देवशयनी एकादशी सिर्फ एक व्रत नहीं, बल्कि एक जीवन शैली में बदलाव की शुरुआत है। इसके कुछ गहरे और अनछुए पहलू इस प्रकार हैं:
· खगोलीय महत्व: आषाढ़ मास में सूर्य दक्षिणायन हो जाता है। प्राचीन मान्यता के अनुसार, इस अवधि में सूर्य की ऊर्जा कमजोर पड़ने लगती है, जिससे शरीर की रोग प्रतिरोधक क्षमता भी प्रभावित हो सकती है। चातुर्मास में व्रत-उपवास, सात्विक आहार और संयमित जीवन इसी कमजोरी को दूर करने का एक वैज्ञानिक तरीका है।
· पर्यावरणीय संदेश: भगवान के सोने की यह कथा प्रकृति के संरक्षण का संदेश देती है। चार महीने की वर्षा ऋतु में प्रकृति अपना नवीनीकरण करती है। इस दौरान कम यात्राएं करने, पेड़-पौधों की रोपाई करने और जल स्रोतों की शुद्धता बनाए रखने की सीख implicit है।
· आध्यात्मिक शोध (Spiritual Retreat): यह चार महीने का समय बाहरी गतिविधियों को कम कर आंतरिक साधना पर ध्यान केंद्रित करने का है। जिस तरह भगवान अंतर्मुखी होते हैं, उसी तरह भक्त को भी अपनी ऊर्जा को भीतर की ओर मोड़ना चाहिए।
· कर्म और उसके प्रभाव का दर्शन: राजा मान्धाता की कथा हमें बताती है कि किसी एक के पाप का प्रभाव पूरे समाज पर पड़ सकता है और किसी एक के पुण्य (व्रत) से पूरे समाज का कल्याण हो सकता है। यह सामूहिक जिम्मेदारी और सामूहिक कर्मफल का दर्शन है।
· तुलसी का विशेष महत्व: इस दिन से तुलसी के पौधे में भगवान विष्णु का वास माना जाता है। इसलिए चातुर्मास में तुलसी की विशेष पूजा की जाती है और उसके नीचे दीपक जलाया जाता है।
देवशयनी एकादशी की प्रथम पौराणिक कथा
पुराणों में देवशयनी एकादशी की पहली कथा राजा बलि और भगवान विष्णु के वामन अवतार से जुड़ी है। यह कथा भक्ति, दान और वचनबद्धता की मिसाल पेश करती है। आइए इसे विस्तार से समझें और जानें।
एक समय की बात है, जब देवलोक और असुर लोक में निरंतर युद्ध चलते रहते थे। असुरों के राजा बलि एक पराक्रमी और दानी राजा थे। उन्होंने अपने तप और युद्ध कौशल से तीनों लोकों पर विजय प्राप्त कर ली थी। देवताओं की रक्षा के लिए भगवान विष्णु ने वामन अवतार लिया। वामन एक छोटे कद के ब्राह्मण के रूप में प्रकट हुए, जिनके पास एक छत्र और कमंडल था।
"वामन अवतार में भगवान विष्णु, राजा बलि के समक्ष दान मांगते हुए"।
राजा बलि उस समय एक महान यज्ञ कर रहे थे, जिसमें वे दान देने के लिए प्रसिद्ध थे। वामन ब्राह्मण यज्ञ स्थल पर पहुंचे और राजा से तीन पग भूमि दान में मांगी। राजा बलि ने हंसते हुए कहा, "हे ब्राह्मण देव, आप इतनी छोटी सी मांग कर रहे हैं? मैं तो आपको पूरा राज्य दे सकता हूं।" लेकिन वामन ने कहा, "राजन, दान में लालच नहीं होना चाहिए। मुझे सिर्फ तीन पग भूमि चाहिए।"
राजा बलि ने दान देने का संकल्प लेने ही वाला था तभी गुरु शुक्राचार्य ने रोक दिया और कहां हे राजा बलि यह स्वयं भगवान विष्णु है। इनसे बच के रहो। राजा बलि ने कहा स्वयं भगवान विष्णु मेरे यज्ञ में दान मांग रहे हैं यह मेरे लिए पदम सौभाग्य की बात है।
उन्होंने जल से संकल्प किया, वामन का रूप विशाल हो गया। पहले पग में उन्होंने संपूर्ण पृथ्वी, आकाश और दिशाओं को नाप लिया। दूसरे पग में स्वर्ग लोक को लांघ दिया। अब तीसरा पग रखने की जगह नहीं बची। राजा बलि ने समझ लिया कि यह साक्षात भगवान विष्णु हैं। उन्होंने अपना सिर आगे कर कहा, "हे प्रभु, तीसरा पग मेरे सिर पर रखिए।"
भगवान विष्णु प्रसन्न हुए और बलि को पाताल लोक का राजा बना दिया। लेकिन बलि ने एक वर मांगा, "प्रभु, आप मेरे महल में नित्य निवास करें।" भगवान ने वचन दे दिया। लेकिन माता लक्ष्मी चिंतित हुईं, क्योंकि विष्णु जी बलि के वचन में बंध गए। लक्ष्मी जी ने बलि को राखी बांधकर भाई बना लिया और बदले में विष्णु जी को मुक्त करने का वर मांगा। बलि ने सहमति दी, लेकिन भगवान विष्णु ने कहा कि वे चार महीनों तक पाताल में रहेंगे।
यह चार महीने देवशयनी एकादशी से शुरू होते हैं। भगवान विष्णु आषाढ़ शुक्ल एकादशी को पाताल जाते हैं और कार्तिक शुक्ल एकादशी को लौटते हैं। इस दौरान ब्रह्मा और शिव भी बारी-बारी से पाताल की रक्षा करते हैं। कथा से सीख मिलती है कि दान की महिमा अपार है, लेकिन वचन का पालन सर्वोपरि है।
अब इस कथा को गहराई से देखें। राजा बलि का जन्म असुर कुल में हुआ था, लेकिन वे विष्णु भक्त थे। उनके गुरु शुक्राचार्य ने उन्हें यज्ञ करने की सलाह दी। यज्ञ में देवताओं की शक्ति कम हो रही थी। इंद्र देव चिंतित हुए और विष्णु जी से सहायता मांगी। विष्णु जी ने वामन रूप लिया, जो नन्हा सा बालक था, लेकिन उसमें ब्रह्मांड की शक्ति थी।
जब वामन ने पहला पग रखा, तो पृथ्वी कांप उठी। नदियां उफान पर आ गईं, पर्वत हिल गए। दूसरे पग में स्वर्ग लोक के महल डगमगा गए। इंद्र का सिंहासन हिल गया। तीसरे पग के लिए बलि ने अपना सिर झुकाया, जो त्याग की पराकाष्ठा थी। भगवान ने बलि को आशीर्वाद दिया कि वे अमर रहेंगे और पाताल के राजा बनेंगे।
माता लक्ष्मी की भूमिका भी महत्वपूर्ण है। वे गरीब स्त्री का रूप धारण कर बलि के महल पहुंचीं। बलि की पत्नी विंध्यावली ने उन्हें आतिथ्य दिया। लक्ष्मी जी ने राखी बांधी और भाई-बहन का रिश्ता जोड़ा। यह रक्षा बंधन की परंपरा का प्रतीक भी है। बलि ने लक्ष्मी जी को वर दिया, और विष्णु जी मुक्त हुए, लेकिन वचन अनुसार चार महीने पाताल में रहते हैं।
इस कथा का वैज्ञानिक पक्ष भी है। चातुर्मास में वर्षा के कारण प्रकृति में परिवर्तन होता है। कीटाणु बढ़ते हैं, इसलिए शुभ कार्य स्थगित होते हैं। पुराणों जैसे भविष्य पुराण, पद्म पुराण में इसकी चर्चा है। हरिशयन को योगनिद्रा कहा गया है, जहां विष्णु जी विश्राम करते हैं।
कथा से शिक्षा: दान करते समय घमंड न करें। बलि का घमंड टूटा, लेकिन भक्ति बढ़ी। आज के समय में यह कथा हमें सिखाती है कि सफलता में विनम्र रहें।
"देवशयनी एकादशी की दूसरी पौराणिक कथा"
दूसरी कथा शंखासुर राक्षस के वध से जुड़ी है। यह कथा भगवान विष्णु की रक्षा शक्ति को दर्शाती है।
एक बार समुद्र मंथन के बाद असुरों और देवताओं में अमृत के लिए युद्ध हुआ। शंखा सुर नामक राक्षस ने देवताओं को परेशान किया। वह शंख के रूप में छिपकर हमला करता था। भगवान विष्णु ने उसका वध करने का निर्णय लिया। आषाढ़ शुक्ल एकादशी के दिन विष्णु जी ने शंखा सुर से युद्ध किया। युद्ध भयंकर था। शंखा सुर की सेना ने विष्णु जी को घेर लिया, लेकिन सुदर्शन चक्र से सबका संहार हुआ।
शंखा सुर ने छल से हमला किया, लेकिन विष्णु जी ने उसे मार गिराया। यह युद्ध हजारों साल चला। युद्ध समाप्त होने के बाद विष्णु जी थक गए और क्षीरसागर में विश्राम करने लगे। यह विश्राम चार महीनों तक चला। इस दौरान लक्ष्मी जी उनकी सेवा करती रहीं। कथा से पता चलता है कि देवशयनी एकादशी थकान मिटाने का दिन है।
विस्तार से: शंखा सुर का जन्म समुद्र से हुआ था। वह विष्णु जी के शंख का प्रतीक था, लेकिन असुर बन गया। युद्ध में गरुड़ पर सवार विष्णु जी ने हमला किया। शंखा सुर ने जल-थल पर लड़ाई लड़ी। अंत में विष्णु जी ने उसे क्षीरसागर में डुबोकर मार डाला। थकान से वे शयन करने लगे।
इस कथा का महत्व: यह दर्शाता है कि बुराई का अंत आवश्यक है। चातुर्मास में विश्राम स्वास्थ्य के लिए भी जरूरी है। पुराणों में वर्णित है कि इस दौरान सूर्य का तेज कम होता है।
"देवशयनी एकादशी की तीसरी पौराणिक कथा: राजा मान्धाता और लोमश ऋषि"
प्राचीन काल में सूर्यवंशी राजा मान्धाता थे। वह बहुत ही धर्मात्मा, न्यायप्रिय और प्रजा का ध्यान रखने वाले महान चक्रवर्ती सम्राट थे। उनके राज्य में सभी सुखी और समृद्ध थे। एक बार उनके राज्य पर भयंकर अकाल पड़ा। तीन वर्ष तक वर्षा न होने के कारण अन्न की कमी हो गई, नदियां सूख गईं, और प्रजा त्राहि-त्राहि करने लगी। पशु-पक्षी और जीव-जंतु भी मरने लगे।
राजा मान्धाता बहुत चिंतित हुए। वे अपनी प्रजा के दुख को देखकर व्यथित हो उठे। उन्होंने इस संकट से मुक्ति पाने के लिए अपने राजपुरोहित और विद्वान ब्राह्मणों से परामर्श किया। सभी ने कहा कि यह संकट प्राकृतिक नहीं बल्कि किसी पाप कर्म के कारण उत्पन्न हुआ है, इसके लिए किसी महान तपस्वी से ही उपाय पूछना चाहिए।
राजा मान्धाता महर्षि लोमश के आश्रम में उनका अभिवादन कर रहे हैं। चारों ओर हरा-भरा जंगल, नदी और शांति है।
राजा ने इसका हल जानने के लिए तपस्या और यात्रा शुरू की। कई दिनों की खोज के बाद, वह अंगिरा ऋषि के पुत्र और ब्रह्मा के मानस पुत्र महर्षि लोमश के आश्रम में पहुंचे। महर्षि लोमश अत्यंत ज्ञानी और तपस्वी थे। राजा ने उन्हें प्रणाम किया और अपने राज्य की समस्त विपत्ति का वर्णन करते हुए इसका कारण और समाधान पूछा।
महर्षि लोमश गहरे ध्यान में बैठे और अपनी दिव्य दृष्टि से राजा के भूत, भविष्य और वर्तमान को जानने का प्रयास किया। कुछ देर बाद उन्होंने अपनी आंखें खोलीं और राजा से कहा, "हे राजन! आपके राज्य में यह भयंकर संकट किसी गलती के कारण नहीं, बल्कि एक पाप के कारण आया है।"
राजा आश्चर्यचकित होकर बोले, "हे मुनिवर! मैं और मेरे पूर्वज सदैव धर्म का पालन करते आए हैं। हमने कभी किसी का अहित नहीं किया। फिर ऐसा कौन-सा पाप हुआ है जिसके कारण मेरी प्रजा इतनी दुखी है?"
लोमश ऋषि ने कहा, "हे राजन! पाप आपका नहीं, बल्कि एक शूद्र का है जिसने अपने कर्मों का उल्लंघन करते हुए तपस्या की थी। उसने अपने वर्ण के धर्म को छोड़कर तप का आचरण किया, जो उसके लिए वर्जित था। उसके इस पाप के कारण ही आपके राज्य में वर्षा नहीं हो रही है।"
राजा मान्धाता ने पूछा, "तो हे ऋषिवर! अब इस संकट से मुक्ति का उपाय क्या है? उस शूद्र तपस्वी का क्या हुआ?"
ऋषि बोले, "वह शूद्र अपनी तपस्या में लीन था। उसके तप से घबराकर देवताओं ने इंद्र से शिकायत की। इंद्रदेव ने उसकी तपस्या भंग करने का प्रयास किया, परंतु वह असफल रहे। अंततः, इंद्र ने उस शूद्र की हत्या कर दी।
निर्दोष होने के कारण और तपस्या की अवस्था में मारे जाने के कारण उसके प्राण निकलते ही उसकी आत्मा ने भगवान विष्णु से इस अन्याय का बदला लेने की प्रार्थना की। उसकी आत्मा एक भयंकर राक्षसी के रूप में प्रकट हुई और उसने इंद्र पर आक्रमण कर दिया। इंद्र भागकर भगवान विष्णु के पास गए। भगवान ने उस राक्षसी का वध कर दिया, लेकिन जिस भूमि पर उस शूद्र तपस्वी की हत्या हुई थी, वह भूमि पाप से दूषित हो गई। यह पाप आपके पूरे राज्य में फैल गया है, जिसके कारण वर्षा नहीं हो रही है।"
"राजा ने व्याकुल होकर पूछा, "क्या इस पाप का प्रायश्चित्त संभव है, ऋषिवर?"
महर्षि लोमश ने कहा, "हां, इस पाप का एक ही प्रायश्चित्त है और वह है आषाढ़ मास के शुक्लपक्ष की एकादशी का व्रत। इसी एकादशी को 'देवशयनी एकादशी' कहते हैं। आपको इस पवित्र एकादशी व्रत विधि-विधान से करना होगा। इस व्रत के प्रभाव से आपके राज्य का पाप नष्ट हो जाएगा और पुनः मेघ बरसने लगेंगे।"
ऋषि के आदेशानुसार, राजा मान्धाता ने अपनी समस्त प्रजा के साथ देवशयनी एकादशी का व्रत रखा। सभी ने भगवान विष्णु की पूजा-अर्चना की और रात्रि जागरण किया। व्रत के प्रभाव से समस्त पाप नष्ट हो गए और अम्बर से मेघ गरजने लगे और झमाझम वर्षा हुई। नदियां, तालाब और कुएं जल से भर गए। धरती हरी-भरी हो गई और अकाल का संकट टल गया। राज्य में पुनः सुख-समृद्धि लौट आई।
तभी से देवशयनी एकादशी के व्रत का महत्व और भी बढ़ गया और इसे भगवान विष्णु की कृपा प्राप्त करने का सर्वश्रेष्ठ दिन माना जाने लगा।
देवशयनी एकादशी: चार महीने की निद्रा के लिए भगवान विष्णु का द्वार बंद होना
सनातन धर्म में एकादशी व्रत और तिथि का विशेष महत्व है, और वर्ष की सभी चौबीस एकादशियों में देवशयनी एकादशी (आषाढ़ शुक्ल एकादशी) और देवउठनी एकादशी (कार्तिक शुक्ल एकादशी) सर्वाधिक महत्वपूर्ण मानी जाती हैं। देवशयनी एकादशी वह पवित्र दिन है जब भगवान विष्णु चार महीने के लिए योग निद्रा के लिए शयन करते हैं। इस दिन से चातुर्मास की शुरुआत होती है, जो साधना, व्रत, त्याग और भक्ति का अवधि मानी जाती है।
5. प्रश्न और उत्तर (FAQ)
Q1: क्या गर्भवती महिलाएं या बीमार व्यक्ति एकादशी का व्रत रख सकते हैं?
A: धर्म शास्त्रों के अनुसार, स्वास्थ्य संबंधी विशेष परिस्थितियों में अन्न का व्रत न रखकर फलाहार किया जा सकता है। गर्भवती महिलाएं, बुजुर्ग, रोगी और बच्चे पूर्ण उपवास के स्थान पर फल, दूध, जूस आदि ले सकते हैं। मन से भगवान का स्मरण और पूजन करना सर्वाधिक महत्वपूर्ण है, कठोर उपवास से अधिक।
Q2: अगर एकादशी का व्रत टूट जाए तो क्या करें?
A:अगर अनजाने में या मजबूरीवश व्रत टूट जाए, तो घबराएं नहीं। भगवान विष्णु से क्षमा याचना करें और द्वादशी को सामान्य रूप से पारण कर लें। अगली एकादशी से फिर से व्रत का संकल्प लेकर प्रारंभ करें। भगवान भक्त की भावना को देखते हैं, न कि उसकी त्रुटियों को नजर अंदाज कर देते हैं।
Q3: "देवशयनी एकादशी और देवउठनी एकादशी में क्या अंतर है"?
A:देवशयनी एकादशी आषाढ़ मास में आती है और इस दिन भगवान विष्णु चार महीने की निद्रा के लिए शयन करते हैं। इससे चातुर्मास की शुरुआत होती है। देवउठनी एकादशी कार्तिक मास में आती है और इस दिन भगवान विष्णु चार महीने की निद्रा के बाद जागते हैं। इससे चातुर्मास की समाप्ति होती है और सभी मांगलिक कार्यों की शुरुआत हो जाती है।
Q4: "क्या एकादशी के दिन पानी पी सकते हैं"?
A:हां, निर्जल व्रत (बिना पानी के) रखना आवश्यक नहीं है। जल, फलों का रस, दूध आदि तरल पदार्थ ले सकते हैं। निर्जल व्रत केवल उन्हीं लोगों के लिए है जो शारीरिक रूप से पूरी तरह स्वस्थ्य हों और जिन्होंने लंबे समय तक साधना की हो।
Q5: एकादशी के दिन चावल खाना सख्त मना क्यों है?
A:इसके पीछे कई मान्यताएं हैं। एक पौराणिक मान्यता के अनुसार, माता शक्ति के क्रोध से बचने के लिए महर्षि मेधा ने पृथ्वी में प्रवेश किया था और उनका अंश चावल और जौ के रूप में प्रकट हुआ। इसलिए चावल को महर्षि मेधा का प्रतीक माना जाता है और एकादशी के दिन उन्हें खाना (यानी ऋषि का अंश ग्रहण करना) पाप समान माना जाता है। एक वैज्ञानिक कारण यह भी है कि चावल में जल सोखने की क्षमता अधिक होती है, जिससे शरीर में जल की मात्रा बढ़ सकती है और उपवास के दौरान आलस्य आ सकता है।
Q6: "क्या नौकरीपेशा लोग जो ऑफिस जाते हैं, एकादशी का व्रत रख सकते हैं"?
A:हां, बिल्कुल। वे फलाहारी व्रत रख सकते हैं। ऑफिस में फल, दूध, जूस, ड्राई फ्रूट्स आदि ले जा सकते हैं। सबसे महत्वपूर्ण है मन की शुद्धता। ऑफिस में ईमानदारी से काम करना, झूठ न बोलना, किसी की बुराई न करना भी एकादशी व्रत का ही एक हिस्सा है।
Q7: "देवशयनी एकादशी के बाद शादी-विवाह जैसे शुभ कार्य क्यों नहीं किए जाते"?
A:मान्यता है कि जब भगवान विष्णु योग निद्रा में होते हैं, तो ब्रह्मांड की सकारात्मक ऊर्जा निष्क्रिय अवस्था में होती है। इसलिए इस अवधि में कोई नया शुभ कार्य (जैसे विवाह, गृहप्रवेश, नई व्यवसाय की शुरुआत) नहीं किया जाता। यह समय आंतरिक विकास और साधना के लिए समर्पित है।
Q8: "क्या एकादशी के दिन दवाई ले सकते हैं"?
A:हां, बीमारी की स्थिति में दवाई लेना absolutely allowed है। स्वास्थ्य सर्वोपरि है। दवा लेने से व्रत भंग नहीं होता। भगवान किसी की सेहत से नहीं खेलते। आप दवा लेकर फलाहार कर सकते हैं।
Q9: "अगर कोई एकादशी का व्रत रखना चाहता है, लेकिन पूरे नियमों का पालन नहीं कर पाएगा, तो क्या करे"?
A:थोड़ा करने में संकोच करने से अच्छा है कि जितना हो सके, उतना करें। यदि पूरा दिन व्रत रखना संभव न हो, तो आधा दिन रखें। यदि अन्न नहीं छोड़ सकते, तो केवल एक समय का भोजन करें या तामसिक भोजन छोड़ दें। सबसे छोटा और सरल तरीका है कि उस दिन सत्य बोलें, क्रोध न करें और भगवान विष्णु के नाम का जाप करें। भावना सर्वाधिक महत्वपूर्ण है।
Q10: "चातुर्मास में और किन बातों का ध्यान रखना चाहिए"?
A:चातुर्मास में इन बातों का ध्यान रखना चाहिए:
· सात्विक और सादा भोजन करें।
· ज्यादा से ज्यादा समय आध्यात्मिक चिंतन और सत्संग में बिताएं।
· अत्यधिक यात्राएं करने से बचें।
· वाणी पर नियंत्रण रखें, व्यर्थ की बातचीत और चुगल खोरी से दूर रहें।
· नियमित पूजा-पाठ और दान-पुण्य करते रहें।
"डिस्क्लेमर (अस्वीकरण)"
यह ब्लॉग लेख सामान्य जानकारी और हिंदू धर्म ग्रंथों में वर्णित मान्यताओं पर आधारित है। इस लेख का उद्देश्य पाठकों तक धार्मिक और सांस्कृतिक ज्ञान पहुँचाना मात्र है, न कि किसी प्रकार की धार्मिक या कानूनी सलाह देना।
· वैयक्तिक विश्वास: लेख में उल्लेखित सभी मान्यताएं, नियम और विधियां विभिन्न धर्मग्रंथों और regional customs पर आधारित हैं। इनमें भिन्नता संभव है। पाठकों से अनुरोध है कि वे अपने विवेक और व्यक्तिगत विश्वास के अनुसार ही इनका पालन करें।
· स्वास्थ्य संबंधी सलाह: लेख में वर्णित व्रत और आहार संबंधी नियम सामान्य स्थितियों के लिए हैं। गर्भवती महिलाएं, स्तनपान कराने वाली माताएं, मधुमेह, उच्च रक्तचाप, या किसी अन्य गंभीर बीमारी से पीड़ित व्यक्ति, वृद्धजन तथा बच्चे बिना डॉक्टर की सलाह लिए कोई भी कठोर उपवास न रखें। स्वास्थ्य सदैव सर्वोच्च प्राथमिकता है। भगवान भक्त की सेहत और भावना को महत्व देते हैं, कठोर नियमों को नहीं।
· पारंपरिक भिन्नताएं: पूजा विधि, व्रत के नियम और मान्यताएं क्षेत्र, परिवार और संप्रदाय के अनुसार थोड़ी भिन्न हो सकती हैं। किसी भी प्रकार की भिन्नता को स्वीकार्य माना जाना चाहिए।
· व्यावसायिक उपयोग: इस लेख की सामग्री का किसी भी प्रकार के व्यावसायिक उपयोग या लाभ के लिए उपयोग वर्जित है।
· जिम्मेदारी: लेखक या ब्लॉग प्लेटफॉर्म इस लेख में दी गई जानकारी के आधार पर पाठकों द्वारा लिए गए किसी भी निर्णय या कार्य के परिणामों के लिए किसी भी प्रकार की कानूनी या नैतिक जिम्मेदारी नहीं लेते हैं।
अंतिम शब्द: देवशयनी एकादशी का पर्व हमें जीवन में संयम, सादगी और आध्यात्मिकता को बढ़ावा देने का संदेश देता है। इसे केवल एक रीति-रिवाज के रूप में न देखें, बल्कि इसके पीछे छिपे गहन दर्शन और जीवन मूल्यों को समझने का प्रयास करें।