पितृपक्ष 2025 की विस्तृत जानकारी प्राप्त करें, जिसमें श्राद्ध और तर्पण का महत्व, विधि, क्या करें और क्या न करें, और कर्ण से जुड़ी पौराणिक कथा शामिल है। अपने पूर्वजों का आशीर्वाद प्राप्त करें।
यह तस्वीर पितृपक्ष के आध्यात्मिक और शांत वातावरण को दर्शाती है। जिसमें एक परिवार "शांत वातावरण में, अपने पूर्वजों का तर्पण करते हुए दिख रहा है।"
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क्या आपने कभी सोचा है कि हमारे पूर्वज, जिन्होंने हमें यह जीवन दिया, हमसे क्या चाहते होंगे? क्या कोई ऐसा समय होता है जब वे हमारे करीब आते हैं, हमारे प्रेम और कृतज्ञता को महसूस करने के लिए? सनातन धर्म में, पितृपक्ष एक ऐसा ही पावन अवसर है, जब हम अपने दिवंगत पूर्वजों को श्रद्धापूर्वक याद करते हैं, उनका तर्पण करते हैं और उनके आशीर्वाद प्राप्त करते हैं। यह केवल एक धार्मिक अनुष्ठान नहीं, बल्कि हमारे पूर्वजों के प्रति सम्मान, कृतज्ञता और प्रेम व्यक्त करने का एक गहरा भावनात्मक माध्यम है।
पितृपक्ष क्या है?
पितृपक्ष, जिसे श्राद्ध पक्ष भी कहा जाता है, हिंदू धर्म में 15 दिनों की एक महत्वपूर्ण अवधि है जो हमारे पूर्वजों को समर्पित होती है। यह भाद्रपद मास की पूर्णिमा से शुरू होकर आश्विन मास की अमावस्या तक चलता है। इस दौरान, ऐसी मान्यता है कि हमारे पूर्वज पृथ्वी पर आते हैं, ताकि वे अपने वंशजों द्वारा किए गए तर्पण और श्राद्ध को ग्रहण कर सकें। यह समय हमें अपने उन पूर्वजों के प्रति अपने कर्तव्यों को पूरा करने का अवसर देता है, जिन्होंने हमें यह जीवन और संस्कार दिए।
2025 में पितृपक्ष की तिथियां:
सनातन पंचांग के अनुसार, पितृपक्ष 07 सितंबर 2025, शुक्रवार को भाद्रपद माह की शुक्ल पक्ष की पूर्णिमा तिथि से शुरू हुआ और 21 सितंबर, रविवार को आश्विन मास की कृष्ण पक्ष की अमावस्या तिथि को समाप्त हुआ।
07 सितंबर 2025, शुक्रवार: पूर्णिमा तिथि / प्रतिपदा तिथि श्राद्ध (भाद्रपद माह, शुक्ल पक्ष पूर्णिमा / आश्विन मास, कृष्ण प्रतिपदा तिथि)
08 सितंबर 2025, शनिवार: द्वितीया तिथि श्राद्ध (आश्विन माह, कृष्ण पक्ष, द्वितीया तिथि)
09 सितंबर 2025, रविवार: तृतीया तिथि श्राद्ध (आश्विन माह, कृष्ण पक्ष तृतीया तिथि)
10 सितंबर 2025, सोमवार: चतुर्थी तिथि श्राद्ध (आश्विन माह, कृष्ण पक्ष, चतुर्थी तिथि)
11 सितंबर 2025, मंगलवार: पंचमी तिथि श्राद्ध (आश्विन मास, कृष्ण पक्ष)
12 सितंबर 2025, बुधवार: षष्ठी तिथि श्राद्ध (आश्विन माह, कृष्ण पक्ष, षष्ठी तिथि)
13 सितंबर 2025, गुरुवार: सप्तमी तिथि और अष्टमी तिथि श्राद्ध (आश्विन माह, कृष्ण पक्ष, सप्तमी तिथि)
तस्वीर में दी गई तिथियां में होती है श्रद्धा कर्म
14 सितंबर 2025, शनिवार: नवमी तिथि श्राद्ध (आश्विन मास, कृष्ण पक्ष, नवमी तिथि)
15 सितंबर 2025, रविवार: दशमी तिथि श्राद्ध (आश्विन मास, कृष्ण पक्ष, दशमी तिथि)
16 सितंबर 2025, सोमवार: एकादशी तिथि श्राद्ध (आश्विन माह, कृष्ण पक्ष, एकादशी तिथि)
17 सितंबर 2025, मंगलवार: मघा श्राद्ध (आश्विन मास, कृष्ण पक्ष, मघा नक्षत्र श्राद्ध)
18 सितंबर 2025, बुधवार: द्वादशी तिथि श्राद्ध (आश्विन मास, कृष्ण पक्ष, द्वादशी तिथि)
19 सितंबर 2025, गुरुवार: त्रयोदशी तिथि श्राद्ध (आश्विन मास, कृष्ण पक्ष, त्रयोदशी तिथि)
20 सितंबर 2025, शुक्रवार: चतुर्दशी श्राद्ध (आश्विन मास, कृष्ण पक्ष, चतुर्दशी तिथि)
21 सितंबर 2025, शनिवार: सर्वपितृ अमावस्या तिथि (आश्विन मास, कृष्ण पक्ष अमावस्या)
श्राद्ध और तर्पण: क्या है अंतर और क्यों हैं ये अनिवार्य?
अक्सर लोग श्राद्ध और तर्पण को एक ही मानते हैं, लेकिन इनमें एक सूक्ष्म अंतर है।
श्राद्ध: यह एक संस्कृत शब्द है, जिसका शाब्दिक अर्थ है "ईमानदारी और विश्वास के साथ किया गया कर्म"। सरल शब्दों में, यह पितरों के प्रति श्रद्धा और विश्वास के साथ किए गए मुक्ति कर्म को दर्शाता है। श्राद्ध कर्म आमतौर पर तीन पीढ़ियों तक के पूर्वजों के लिए किया जाता है।
सनातन धर्मशास्त्रों में चार प्रकार के ऋण बताए गए हैं: देव ऋण, ऋषि ऋण, पितृ ऋण और समाज ऋण। इनमें से पितृ ऋण से मुक्ति पाने के लिए पितृ यज्ञ का वर्णन शास्त्रों में किया गया है, जिसे हम सरल भाषा में श्राद्ध कर्म कहते हैं।
तर्पण: तर्पण का अर्थ है माता-पिता और पूर्वजों को तृप्त करना। यह पिंडदान का ही एक रूप है, जिसमें तिल मिश्रित जल से पूर्वजों को अर्पण किया जाता है, जिसे तिलांजलि भी कहते हैं। तर्पण मुख्य रूप से पूर्वजों को जल अर्पित करके उन्हें तृप्त करने की क्रिया है।
"पितरों को तर्पण करते हुए, श्रद्धा और भक्ति का एक पवित्र दृश्य।"
श्राद्ध की अनिवार्यता क्या है:
श्राद्ध कर्म का हमारे पितरों से अटूट संबंध है। यह पितरों को आहार पहुंचाने का एक माध्यम है। शास्त्रों में उल्लेख है कि पितृपक्ष में तर्पण और श्राद्ध करने से व्यक्ति के पूर्वज प्रसन्न होते हैं और अपने वंशजों को आशीर्वाद प्रदान करते हैं, जिससे घर में सुख-शांति और समृद्धि बनी रहती है।
श्राद्ध कर्म से तृप्त होकर हमारे पूर्वज हमें दीर्घायु, आज्ञाकारी संतान, धन, विद्या, सुख, समृद्धि और उत्तम स्वास्थ्य का आशीर्वाद देते हैं। यह उन्हें स्वर्ग और दुर्लभ मोक्ष की प्राप्ति में भी सहायक होता है।
कैसे करें तर्पण जानें विस्तार से?
तर्पण एक सरल लेकिन पवित्र अनुष्ठान है, जिसे विधि-विधान से करना चाहिए:
पवित्री धारण करें: तर्पण करते समय, दाहिने हाथ की अनामिका उंगली के मूल भाग में दो कुशों से बनी पवित्री (अंगूठी) धारण करें। इसी तरह, बाईं अनामिका के मूल में तीन कुशों से बनी पवित्री धारण करें।
दिशा और सामग्री: हाथ में जौ, तिल, चावल और जल लेकर दक्षिण दिशा की ओर मुख करके बैठें।
तिलांजलि दें: माता, पिता, पिता के पिता (दादा) और पर-बाबा (परदादा) को तीन-तीन बार अंजलि से तिलांजलि दें। ध्यान रहे, तर्पण हमेशा दक्षिण दिशा की ओर मुख करके ही करना चाहिए।
वंश की चाहत: संतान प्राप्ति की इच्छा रखने वाले व्यक्तियों को मृतक की तिथि पर (जैसे सप्तमी या रविवार, या उनके जन्मदिन पर) तिल से तर्पण करना चाहिए।
पितृपक्ष में क्या करें और क्या न करें?
पितृपक्ष की अवधि बेहद पवित्र मानी जाती है और इस दौरान कुछ नियमों का पालन करना महत्वपूर्ण है:
क्या करें:
सुबह स्नान: सुबह उठकर स्नान करें और देवस्थान व निवास स्थान को गाय के गोबर से लीपकर और गंगाजल से पवित्र करके घर के आंगन में रंगोली बनाएं।
स्वादिष्ट भोजन: जिस तिथि को श्राद्ध करते हैं, उस दिन घर में स्वादिष्ट और गरिष्ठ भोजन बनवाएं। घर की महिलाएं शुद्ध होकर पितरों के लिए भोजन बनाएं। मृतक व्यक्ति को पसंद आने वाले पकवान अवश्य बनाएं।
गाय और कौवे को भोजन: भोजन बनने के बाद सबसे पहले कौवा और गाय के लिए भोजन निकालें।
"घर के द्वार पर, कौवा और गाय को श्रद्धा का भोजन कराते हुए। यह सनातनी परंपरा का एक सुंदर दृश्य।"
ब्राह्मणों को भोजन: श्रेष्ठ कुल के ब्राह्मणों, या कुल के अधिकारी (दामाद या भगिना-भगिनी) को न्योता देकर आदरपूर्वक भोजन कराएं। उन्हें सफेद वस्त्रों से सम्मानित करें।
गरीबों को भोजन: अपने पूर्वजों की आत्मा की शांति के लिए गरीब और जरूरतमंद लोगों को भी भोजन कराएं। कमजोर वर्ग (हरिजन) के लोगों के हाथों से बना श्राद्ध का भोजन सर्वोत्तम माना जाता है।
दोपहर में श्राद्ध: श्राद्ध कर्म केवल दोपहर में ही करें।
तीन महत्वपूर्ण वस्तुएं: श्राद्ध कर्म करने में तीन वस्तुएं महत्वपूर्ण हैं: दुपहिया पुत्र (विवाहित पुत्र), दिन का आठवां भाग और काला तिल।
शुद्धिकरण और शांति: श्राद्ध कर्म करते समय तीन बातों का खास ध्यान रखें: बाहर और भीतर की शुद्धिकरण, क्रोध न करना और जल्दबाजी न करना।
गुप्त रूप से करें: पद्म पुराण और मनुस्मृति में स्पष्ट लिखा है कि श्राद्ध कर्म में दिखावा नहीं करना चाहिए। इसे गुप्त रूप से एकांत में ही करें। धनी होने पर भी विस्तार और धूमधाम से नहीं करें। श्राद्ध में विशाल भंडारे के तहत भोजन करने की मनाही है।
भावना प्रधान: पितरों को धन से नहीं, बल्कि मन की भावना से प्रसन्न करना चाहिए। यदि आप नाना प्रकार के पकवान बनाने में सक्षम नहीं हैं, तो अनाज, चावल, आटा, फल या सब्जी भी किसी ब्राह्मण को दान कर सकते हैं। गरीब और लाचार व्यक्ति सच्चे मन और श्रद्धा पूर्वक अपने पितरों को जल में तिल मिश्रित कर तर्पण कर उनकी आत्मा को संतुष्ट कर सकते हैं।
क्या न करें:
नया काम/खरीदारी: पितृपक्ष के दौरान कोई नया काम शुरू नहीं करना चाहिए, न ही कोई नया वाहन, कपड़ा जैसी चीजें खरीदनी चाहिए। इस अवधि में किसी नए काम की योजना भी न बनाएं।
मांगलिक कार्य: कोई भी मांगलिक कार्य, जैसे शादी-ब्याह, इस अवधि में करना वर्जित रहता है। ऐसे कार्य निश्चित रूप से अच्छे नहीं माने जाते हैं।
मांसाहारी भोजन: श्राद्ध कर्म के दौरान घर में लहसुन, प्याज सहित किसी भी तरह का मांसाहारी भोजन ग्रहण करना वर्जित माना जाता है।
क्रोध: पितृपक्ष के दौरान क्रोध करना बुरा माना गया है।
प्रथम वर्ष का श्राद्ध: मृतक व्यक्ति के पहले वर्ष श्राद्ध कर्म नहीं करना चाहिए।
रात्रि और जन्मदिन: पितृपक्ष की रात्रि में तथा अपने जन्मदिन पर श्राद्ध कर्म नहीं करना चाहिए।
आत्महत्या करने वालों का श्राद्ध: कूर्म पुराण के अनुसार, जो व्यक्ति अग्नि या विष के द्वारा आत्महत्या करता है, उसके नियमित श्राद्ध करने का विधान नहीं है।
चतुर्दशी का श्राद्ध: चतुर्दशी तिथि को मृतक व्यक्ति का श्राद्ध दूसरे दिन अमावस्या तिथि को करने का विधान है। चतुर्दशी तिथि को श्राद्ध करने से अनिष्ट हो सकता है।
कौवों का महत्व और पितरों का धरती पर आगमन
पौराणिक मान्यता के अनुसार, पितृपक्ष में पूर्वजों की आत्माएं 15 दिनों के लिए धरती पर आती हैं। इस दौरान चंद्रमा पृथ्वी के सबसे नजदीक होता है, और पितृ लोक चंद्रमा से ऊपर माना गया है। इसलिए, जब चंद्रमा धरती के सबसे नजदीक होता है और ग्रहों की स्थिति अनुकूल रहती है, तब हमारे पूर्वज धरती पर रहने वाले अपने वंशजों के सर्वाधिक करीब होते हैं।
कौवे को पितरों का दूत माना जाता है। ऐसी मान्यता है कि कौवे के माध्यम से पूर्वज अपने वंशजों द्वारा अर्पित किए गए श्राद्ध के भोजन को ग्रहण करते हैं। यह एक आश्चर्यजनक बात है कि आम दिनों में कौवे शायद ही कभी भोजन ग्रहण करने आते हैं, लेकिन पितृपक्ष में वे बड़ी संख्या में आते हैं और श्रद्धापूर्वक अर्पित किए गए भोजन को ग्रहण करते हैं।
इसलिए, पितृपक्ष में स्वादिष्ट भोजन पकाया जाना चाहिए, क्योंकि ऐसी मान्यता है कि स्वादिष्ट भोजन को कौवे के रूप में पूर्वज ग्रहण करते हैं और संतुष्ट होकर अपने लोक को चले जाते हैं। इससे पूरे साल भर धन-धान्य और समृद्धि की वृद्धि होती रहती है।
जो लोग अपने पूर्वजों के नाम पर श्राद्ध नहीं करते या उन्हें रुखा-सूखा, बासी भोजन देते हैं, उनके पूर्वज असंतुष्ट होकर घर से निराश लौट जाते हैं। उनके निराश होकर लौट जाने की वजह से घर के लोग अकाल मृत्यु, अनेक प्रकार की बीमारियों के कारण मरते हैं और साल भर अशांत रहते हैं।
ऐसी मान्यता है कि अगर पितर नाराज हो जाएं, तो लोगों को अपने जीवन में कई तरह की समस्याओं का सामना करना पड़ता है, जो जन्मकुंडली में पितृदोष के रूप में परिलक्षित होती हैं।
पितृपक्ष से संबंधित पौराणिक कथा: कर्ण का उदाहरण
सनातन धर्म ग्रंथों में पितृपक्ष से संबंधित एक मार्मिक कथा का वर्णन मिलता है, जो कर्ण से जुड़ी है।
द्वापर युग में जब महाभारत युद्ध के दौरान दानवीर कर्ण की मृत्यु अर्जुन के हाथों हुई, तो उनकी आत्मा स्वर्ग लोक पहुंची। स्वर्ग में कर्ण को भोजन के बदले में सोना, चांदी और आभूषण दिए गए। यह देखकर कर्ण की आत्मा निराश हो गई। उन्होंने देवराज इंद्र से प्रश्न किया, "हे देवराज, मुझे खाने के लिए वास्तविक भोजन क्यों नहीं दिया जा रहा है? मुझे भोजन के बदले सोना, चांदी और आभूषण क्यों मिल रहे हैं?"
देवराज इंद्र ने मुस्कुराते हुए इस बात का खुलासा करते हुए कहा, "हे कर्ण, आपने अपने जीवन भर इन सभी चीजों (सोना, चांदी, आभूषण) का दान दूसरों को किया है। आपने कभी भी अपने पूर्वजों और पुरखों के लिए कुछ भी दान नहीं किया है। यही कारण है कि आपको यहां भोजन के बदले वही मिल रहा है, जो आपने दान किया है।"
स्वर्ग के दिव्य लोकों में पहुंचने पर भगवान इंद्र राजा कर्ण को पितृपक्ष के संबंध में जानकारी देते हुए।
देवराज इंद्र की बात सुनकर कर्ण ने कहा कि वह अपने पूर्वजों के बारे में कुछ भी नहीं जानते थे और इसीलिए उन्होंने उनके लिए कभी कुछ नहीं किया। कर्ण की इस बात पर विचार करते हुए, भगवान इंद्र ने कर्ण को 15 दिनों के लिए पृथ्वी पर वापस जाने की अनुमति दे दी, ताकि वह अपने पूर्वजों के लिए श्राद्ध कर्म कर सकें। कर्ण ने पृथ्वी पर आकर 15 दिनों तक अपने पूर्वजों के लिए विधि-विधान से श्राद्ध किया, उन्हें भोजन अर्पित किया और उनका तर्पण किया। इस प्रकार, उन्होंने अपने पितृ ऋण से मुक्ति पाई।
वर्तमान समय में इन्हीं 15 दिनों की अवधि को पितृपक्ष के रूप में मनाया जाता है। यह कथा हमें यह सिखाती है कि चाहे हम कितने भी दानवीर और धर्मात्मा क्यों न हों, अपने पूर्वजों के प्रति अपने कर्तव्यों का पालन करना अत्यंत आवश्यक है। पितृपक्ष हमें यह अवसर प्रदान करता है कि हम अपने दिवंगत पूर्वजों को याद करें, उनके प्रति कृतज्ञता व्यक्त करें और उन्हें मोक्ष की राह पर अग्रसर होने में सहायता करें।
पितृपक्ष हमारे संस्कार और संस्कृति से जुड़े हैं
पितृपक्ष केवल एक धार्मिक अनुष्ठान नहीं, बल्कि हमारे सांस्कृतिक और नैतिक मूल्यों का एक अभिन्न अंग है। यह हमें सिखाता है कि हम अपने जड़ों को कभी न भूलें और उन लोगों के प्रति श्रद्धा रखें जिन्होंने हमें जीवन दिया। यह हमें याद दिलाता है कि हमारे पूर्वज भले ही शारीरिक रूप से हमारे साथ न हों, लेकिन उनका आशीर्वाद और ऊर्जा हमेशा हमारे साथ रहती है।
पितृपक्ष के इन पवित्र दिनों में, पूरे मन और श्रद्धा के साथ श्राद्ध और तर्पण करके, हम न केवल अपने पितरों को संतुष्ट करते हैं, बल्कि अपने जीवन में सुख, शांति और समृद्धि को भी आमंत्रित करते हैं। तो, इस पितृपक्ष में अपने पूर्वजों को याद करें और उनके आशीर्वाद से अपने जीवन को समृद्ध करें।
डिस्क्लेमर:
इस लेख में दी गई जानकारी विभिन्न माध्यमों, ज्योतिषियों, पंचांग, प्रवचनों, मान्यताओं और धर्मग्रंथों से संग्रहित की गई है। इसका उद्देश्य केवल आपको सूचना प्रदान करना है। हम इसकी सटीकता या विश्वसनीयता की गारंटी नहीं लेते हैं। पाठक को सलाह दी जाती है कि वे किसी भी धार्मिक अनुष्ठान या उपाय को अपनाने से पहले किसी योग्य ज्योतिषी या विद्वान से परामर्श करें। इसके किसी भी उपयोग की जिम्मेदारी स्वयं पाठक की होगी।